सुबह के करीब 10:00 बज रहे थे। शहर के सबसे नामी प्राइवेट अस्पताल आरोग्यम हॉस्पिटल्स के बाहर लग्जरी कारों की कतार लगी थी। एंट्रेंस पर एसी की ठंडी हवा बह रही थी और रिसेप्शन के अंदर चमकते फर्श, नीली यूनिफार्म पहने स्टाफ और एक झूठी मुस्कुराहट फैली हुई थी। उसी माहौल में एक फटे हुए कपड़ों वाला बुजुर्ग धीरे-धीरे अस्पताल के दरवाजे तक पहुंचा। उम्र करीब 78 साल। धूल से भरी हुई चप्पलें, चेहरा थका हुआ, आंखों में गहराई और होठों पर तेज खांसी। कंधे पर एक पुराना थैला था जिसमें दवाइयों की कुछ पुरानी पर्चियां और एक छोटा सा पानी की बोतल थी। वो सीधे

रिसेप्शन पर पहुंचा। कांपती आवाज में बोला, बेटा, बहुत तबीयत खराब है। सीने में दर्द है। सांस नहीं ले पा रहा। डॉक्टर से मिलना है। रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने उसे एक बार ऊपर से नीचे देखा। फिर कुर्सी पर पीछे झुकते हुए नाक सिकोड़ते हुए कहा। पहले ओपीडी स्लिप बनवाइए। ₹500 की फीस जमा कीजिए। तभी डॉक्टर देखेंगे। बुजुर्ग ने जेब से एक सिकुड़ा हुआ ₹100 का नोट निकालते हुए कहा। बेटा कुछ पैसे कम है। लेकिन अंदर जाकर डॉक्टर से तो मिलवा दो। माफ कीजिए। यह अस्पताल है। कोई सरकारी डिस्पेंसरी नहीं। लड़की ने टेबल पर उंगलियां बचाते हुए कहा, पहले पेमेंट फिर

इलाज। बुजुर्ग ने कांपते हुए पानी की बोतल निकाली। एक घूंट पिया और खांसते हुए फिर बोला, “मैं बहुत दूर से आया हूं। ट्रेन से जरूरी इलाज है। बहुत जरूरी। तभी रिसेप्शन से कुछ दूरी पर एक युवा डॉक्टर लगभग 32 वर्ष वहां से गुजरते हुए ठिटका। वह सफेद कोर्ट में था। चेहरे पर घमंड और आवाज में तीखापन। क्यों शोर मचा रखा है बाबा? यह कोई चैरिटी क्लीनिक नहीं है। भागो यहां से। सिक्योरिटी को बुलाऊं। बुजुर्ग ने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन खांसी ने बात रोक दी। चलो बाहर। वरना खुद उठाकर फेंकवा दूंगा। डॉक्टर चिल्लाया। दो सिक्योरिटी गार्ड्स आगे बढ़े। एक ने बुजुर्ग के कंधे

को पकड़ कर बाहर की ओर धकेला। वो लड़खड़ा कर गिर गया। उसका थैला नीचे गिरा। पर्चियां और एक तस्वीर जमीन पर बिखर गई। कोई आगे नहीं आया। किसी की नजर नहीं झुकी। लोग अपने मोबाइल में बिजी थे और स्टाफ ने मुंह मोड़ लिया। बुजुर्ग जमीन से उठा। चुपचाप अपनी चीजें समेटी। पानी की बोतल को सीधा किया और पैरों से खींचता हुआ थैला कंधे पर डालकर हॉस्पिटल के गेट से बाहर निकल गया। गेट के पास पहुंचकर उसने अपनी जेब से एक पुराना फीचर फोन निकाला। बटन वाला फोन दरार लगी स्क्रीन लेकिन नेटवर्क था। उसने एक नंबर डायल किया। फोन कान पर लगाकर सिर्फ एक लाइन बोली। बोर्ड रूम

तैयार करवा दो। मैं 30 मिनट में आ रहा हूं। फोन काट दिया। अस्पताल के बाहर लोग अब भी अनजान थे। अंदर डॉक्टर उसी एंथन के साथ चलता रहा। पर बाहर कुछ ऐसा शुरू हो चुका था जो पूरे अस्पताल की नींव हिलाने वाला था। 30 मिनट बाद आरोग्यम हॉस्पिटल के बाहर अचानक हलचल बढ़ने लगी। तीन काली Mercedes और एक BMW कार हॉस्पिटल के मेन गेट पर रुकी। अंदर बैठे लोग उतरते ही सिक्योरिटी गार्ड्स ने सीधा सलाम ठोका। लोग चौंके स्टाफ दौड़ा। रिसेप्शन के पास खड़ी वही लड़की अब हड़बड़ा गई। डॉक्टर जिसने अभी कुछ देर पहले गुस्से में चिल्लाया था। वही अब चुप खड़ा था।

गाड़ियों में से उतरे कुछ नामी चेहरे, बिजनेस टकून, अस्पताल ट्रस्ट के चेयरमैन, कुछ नामी उद्योगपति और उनके बीच में वही बुजुर्ग व्यक्ति। अब वह बुजुर्ग नहीं लग रहे थे। बल्कि वक्त से निकले हुए एक शांत तूफान की तरह दिख रहे थे। उनके पुराने कपड़े वही थे। जूते अब भी धूल से सने थे। लेकिन उनके साथ चल रही गरिमा ने सबकी नजरें झुका दी। रिसेप्शन पर अफरातफरी मच गई। सर कौन है यह? इतना बड़ा स्वागत। यह तो मालिक जैसे फिर किसी ने धीरे से कहा, “अरे यह तो मिस्टर राघव नारायण है। वो जो हमारी चेन के मूक शेयर होल्डर है जो कभी सामने नहीं आते। हां, राघव नारायण।

अस्पताल की पूरी चेन के 42% शेयर के मालिक। एक अरबपति जो सादगी में जीते हैं। जिन्होंने कभी नाम के पीछे शोहरत नहीं छोड़ी। पर हर नीति के पीछे वही रहते हैं। राघव जी सीधे रिसेप्शन काउंटर पर पहुंचे। बिना गुस्से के बिना आवाज उठाए। उन्होंने शांत भाव से कहा वो डॉक्टर और रिसेप्शनिस्ट को बुलाओ। यहीं पर इसी जगह अंदर हड़कंप मच गया। डॉक्टर को बुलाया गया। वो सफेद कोट अब कांपने लगा था। वो लड़की जो कुछ देर पहले ₹500 फीस की बात कर रही थी। अब कांपती हुई आगे आई। और तभी कैमरों की फ्लैश चमकने लगी। टीवी रिपोर्टर्स आ चुके थे। ब्रेकिंग न्यूज़

राघव नारायण खुद अस्पताल में स्टाफ के व्यवहार पर कड़ी प्रतिक्रिया संभव। राघव जी ने दोनों को सामने खड़ा किया। सारे वरिष्ठ अधिकारी और मीडिया मौजूद थे। फिर उन्होंने वही पर्ची निकाली जो जमीन पर गिरी थी। धूल से सनी किनारे मुड़ी हुई। यह वह पर्ची है जो उस मरीज की है जिसे तुमने इंसान नहीं समझा। तुम्हें लगा वह गरीबी में लिपटा हुआ एक बोझ है पर तुमने सिर्फ एक मरीज को नहीं ठुकराया। तुमने अपनी इंसानियत को फेंक दिया। डॉक्टर और रिसेप्शनिस्ट के मुंह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे। भीड़ खामोश थी। कैमरे लगातार रिकॉर्ड कर रहे थे। राघव जी ने जेब से एक

कागज निकाला। टर्मिनेशन लेटर आज से आप दोनों इस अस्पताल का हिस्सा नहीं है क्योंकि यहां अब से एक ही नीति चलेगी। दिखावे से नहीं जरूरत से इलाज होगा। वह कागज कैमरे के सामने हस्ताक्षर करके ट्रस्ट चेयरमैन को सौंप दिया। पूरा अस्पताल मौन था। किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि जिसकी हालत देखकर सभी ने मुंह मोड़ लिया था वही आज उनके भविष्य का फैसला कर रहा है। और राघव नारायण बस इतना कहकर मुड़े मैं चला जाऊंगा पर जो लोग अब आएंगे उनसे पहले उनका पर्स नहीं उनकी तकलीफ देखना सीखो। अगले दिन सुबह देश भर के न्यूज़ चैनलों पर एक ही खबर चल रही थी। राघव

नारायण अरबपति और अस्पताल चेन के गुप्त मालिक ने सादगी में आकर किया सिस्टम का टेस्ट। डॉक्टर और स्टाफ बर्खास्त। इंसानियत नहीं देखी गई। इसलिए नौकरी नहीं बची। राघव नारायण अस्पताल का नाम सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा। यामर हॉस्पिटल ऑफ ह्यूमैनिटी राघव नारायण पेशेंट्स बिफोर पेमेंट। इस घटना ने देश भर में बहस छेड़ दी। एक न्यूज़ डिबेट में वरिष्ठ पत्रकार ने कहा, “हम कितने बार मरीज को उसके कपड़ों से आकते हैं। क्या अस्पताल सिर्फ अमीरों की जागीर है? एक डॉक्टर ने जवाब दिया, मशीनें लाखों की हो, लेकिन अगर उनमें चलाने वालों का दिल गरीब है, तो

इलाज सिर्फ दिखावा है। इधर हॉस्पिटल की शाखाओं में नया बदलाव शुरू हो चुका था। राघव नारायण ने नई घोषणा जारी की। अब हर हॉस्पिटल में एक सम्मान केंद्र बनाया जाएगा। जहां बुजुर्गों, असहायों और इमरजेंसी मरीजों की प्राथमिकता दी जाएगी। बिना पैसे पूछे। हर अस्पताल में पोस्टर लगाए गए। यहां इलाज पहले, फीस बाद में। क्योंकि दर्द का धर्म और गरीबी का गुनाह हमारे सिस्टम में नहीं होता। उधर वही डॉक्टर जो चिल्ला रहा था अब अकेले बैठा था। उसने किसी पत्रकार से कहा। मुझे लगा था मैं डॉक्टर हूं। सब कुछ जानता हूं। पर आज समझा। डॉक्टर वही है जो दर्द पढ़े।

रिपोर्ट नहीं। मैंने पद तो पाया था पर मान खो दिया। एक सप्ताह बाद राघव नारायण फिर से उसी अस्पताल में आए। इस बार सादगी में नहीं बल्कि सम्मान के साथ हर स्टाफ लाइन में खड़ा था। कोई फोटो नहीं, कोई प्रचार नहीं। सिर्फ एक समारोह। वो स्टेज पर नहीं चढ़े बल्कि एक बेंच पर बैठकर बोले, मशीनें कभी अस्पताल की आत्मा नहीं बनती। असल संपत्ति वह कर्मचारी है जो दिल से मरीज को देखते हैं। उसी दिन एक नौजवान रिसेप्शनिस्ट ने एक बुजुर्ग महिला को देखा जो कांपते हाथों से पर्ची दिखा रही थी। उसने कहा अम्मा जी अंदर चलिए। पैसा बाद में देख लेंगे। पहले डॉक्टर से मिलिए। पास

खड़े डॉक्टर ने उस लड़की की ओर देखा और हल्के से सिर हिलाया। बदलाव अब शब्दों में नहीं। कर्मों में नजर आने लगा था और इस बदलाव की शुरुआत किसी वीआईपी प्रोग्राम से नहीं बल्कि एक धूल भरे चप्पल वाले बुजुर्ग की खांसी से हुई थी। कपड़े, पैसा और भाषा कभी भी इंसान के दर्द का माप नहीं हो सकते। इलाज का पहला चरण मशीन नहीं एक मुस्कुराहट होती है और अस्पताल की सबसे कीमती मशीन दिल होता