अपनी बूढ़ी माँ की देखभाल नहीं करना चाहता था, इसलिए बेटे ने बीमार होने का नाटक किया और उसे घर से निकाल दिया। लेकिन तीन महीने बाद उसे पता चला कि उसे सचमुच कैंसर हो गया है। उसकी बूढ़ी माँ ठंडे मन से लौटी और उसे एक चौंकाने वाला बयान दिया।
बेटा कंजूस था और अपनी बूढ़ी माँ की देखभाल नहीं करना चाहता था। माँ की झुकी हुई पीठ, काँपते हाथ और खाने-पीने के लिए दूसरों पर निर्भरता उसे असहज कर देती थी। एक दिन उसने झूठा नाटक रचा—गंभीर रूप से बीमार होने का बहाना किया, जैसे कि उसे भी किसी की देखभाल चाहिए। फिर उसने ठंडे दिल से माँ को घर से निकाल दिया:
– “मैं हम दोनों की देखभाल नहीं कर सकता, तुम्हें गाँव लौट जाना चाहिए, यहाँ बहुत झंझट है!”
माँ गला भरकर, अपना छोटा सा थैला उठाकर चुपचाप उस घर से निकल गई, जिसे उसने अपने हाथों से ईंट-ईंट जोड़कर बनाया था।
तीन महीने बाद, प्रतिशोध सामने आया। बेटे ने महसूस किया कि उसका स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। डॉक्टर के पास गया और हक्का-बक्का रह गया: उसे सचमुच कैंसर था। घबराहट और डर में उसे माँ की याद आई, इसलिए उसने जल्दी से किसी को भेजकर माँ को वापस बुलाया।
लेकिन जब बूढ़ी औरत लौटी, तो वह गर्म आलिंगन नहीं था जिसकी उसने उम्मीद की थी। उसने जेब से एक कागज निकाला और ठंडे स्वर में मेज पर रख दिया:
“त्यागपत्र। आज से मेरा यह अकृतज्ञ बेटा मेरे लिए अस्तित्वहीन है।”
बेटा स्तब्ध रह गया, कागज पकड़े उसके हाथ काँपने लगे, पीठ से ठंडा पसीना बहने लगा। घर अचानक अँधेरा और घुटनभरा लगने लगा। पहली बार उसने समझा कि माँ को खोना क्या होता है—सचमुच खो देना।
यह मानो आसमान से गिरी बिजली थी। वह घबरा गया, हर रात करवटें बदलता रहा, माँ के बारे में सोचता रहा। हताशा में उसने फिर किसी को भेजकर माँ को बुलवाया:
– “माँ, मैं ग़लत था… लौट आओ और मेरी देखभाल करो… सिर्फ़ तुम ही मेरी देखभाल कर सकती हो…”
पूरा परिवार इस पल का इंतज़ार कर रहा था। सबको लगा कि माँ रोते हुए बेटे को गले लगाएगी, जैसे हर दयालु माँ करती है।
लेकिन जब बूढ़ी औरत लौटी, तो वह पूरी तरह अलग थी। उसकी पीठ अब भी झुकी थी, हाथ अब भी काँप रहे थे, लेकिन आँखें बर्फ जैसी ठंडी थीं। उसने कुछ नहीं कहा, बस शर्ट से एक कागज निकाला और सीधे मेज पर रख दिया।
बेटे ने काँपते हाथों से उसे खोला और देखा कि बड़े लाल अक्षरों में चार शब्द लिखे थे:
“मेरी घोषणा पत्र।”
बिना एक आँसू बहाए, बूढ़ी माँ ने बस एक वाक्य कहा:
“एक समय था जब मैं तुम्हारे साथ रहने की भीख माँगती थी, लेकिन तुमने मुझे ठुकरा दिया। आज, मैं भी तुम्हें छोड़ने का चुनाव करती हूँ।”
पूरा घर घोर सन्नाटे में डूब गया। बेटा कुर्सी पर ढह गया, हाथ काँपते रहे, पसीना धार की तरह बहता रहा। बाहर पड़ोसी धीरे-धीरे फुसफुसा रहे थे:
“ज़िंदगी उधार चुकाने का नाम है, इसमें कोई अन्याय नहीं है।”
पहली बार बेटे ने गहराई से महसूस किया कि माँ को खोना कैसा होता है—मौत से नहीं, बल्कि मातृ प्रेम के पूर्ण अंत से, जीवन के अंतिम सहारे के खो जाने से।
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