विधवा महिला जिंदगी से हार चुकी थी। नौकर ने हौसला दिया। फिर आगे जो हुआ इंसानियत को हिला देने वाला था और आज की समाज की सच्चाई भी है और आज के समाज के लिए एक आईना भी। पूरी कहानी जानने के लिए वीडियो को आखिर तक जरूर देखें। लेकिन पहले वीडियो को लाइक करिए, चैनल को सब्सक्राइब करिए और कमेंट में अपना और अपने शहर का नाम जरूर लिखिए ताकि आपका आशीर्वाद मिलता रहे। दोस्तों, यह सच्ची घटना मुंबई शहर की है। जहां की रहने वाली एक 25 साल की महिला करोड़ों की कंपनी की मालकिन थी। बाहर से देखने पर उसकी जिंदगी बहुत आलीशान और खुशहाल लगती थी। लेकिन अंदर से उसकी
दुनिया बिल्कुल उलझी हुई थी। क्योंकि शादी के कुछ ही समय बाद उसके पति को गंभीर बीमारी ने घेर लिया था। उस महिला का नाम था राधिका। अभी शादी को सिर्फ 2 साल ही हुए थे और एक साल बाद ही पति की बीमारी का पता चल गया था। तब से उनकी जिंदगी सिर्फ अस्पताल, दवाइयों और इलाज तक ही सीमित हो गई थी। बड़े घर की चमकदमक के पीछे सिर्फ सन्नाटा और दुख छिपा था। इसी दौरान किस्मत ने एक साधारण से लड़के को उनकी जिंदगी में ला खड़ा किया। दिनेश दिनेश गांव का रहने वाला था। गरीब परिवार से जुड़ा हुआ पर बेहद मेहनती और ईमानदार। पिता की मौत के बाद वह मां और बहन का सहारा बना। लेकिन
हालात ने उसे मजबूर किया कि वह नौकरी की तलाश में मुंबई आए। यहां उसे कोई बड़ी नौकरी नहीं मिली। कभी मजदूरी करता, कभी छोटी-मोटी दुकानों पर काम करता, कभी सामान ढोता। लेकिन वह जानता था कि मेहनत ही उसका सहारा है। एक दिन उसे एक प्लेसमेंट एजेंसी से बुलावा मिला। एजेंसी ने कहा, एक बीमार इंसान की देखभाल करनी है। तनख्वाह होगी ₹25,000 महीना। दिनेश ने बिना देर किए हामी भर दी। जब वह उस घर पहुंचा तो उसकी आंखें ठहर गई। ऊंचा गेट, चौड़ा आंगन, संगमरमर की सीढ़ियां और इतना बड़ा हॉल कि उसमें पूरा गांव समा जाए। दिनेश के मन में सवाल उठा क्या सच में मुझे यहां नौकरी
मिली है? वहीं उसकी मुलाकात हुई राधिका से। शादी मगर शालीन साड़ी पहने चेहरे पर थकान लेकिन आंखों में गहरी चमक लिए राधिका उसके सामने खड़ी थी। उसने नरम स्वर में कहा आप दिनेश है ना? हमें आपकी ही जरूरत थी। दिनेश ने सिर झुकाकर हामी भर दी। उसी वक्त उसे समझ आ गया कि अब उसकी जिंदगी का एक नया अध्याय शुरू होने वाला है। दिनेश ने उस घर में अपना काम शुरू कर दिया। उसकी जिम्मेदारी थी राधिका के बीमार पति की देखभाल करना। जब वह पहली बार कमरे में गया तो उसने देखा कि बिस्तर पर एक कमजोर सा इंसान लेटा है। चेहरा पीला पड़ चुका था। शरीर हड्डियों का ढांचा बन गया था और
सांसे भारी थी। उन्हें देखकर दिनेश का दिल कांप गया। राधिका ने धीमी आवाज में कहा, शादी को बस 2 साल ही हुए हैं और एक साल बाद ही इन्हें यह बीमारी लग गई। तब से इनकी जिंदगी सिर्फ दवाइयों और अस्पतालों तक ही सिमट गई है। दिनेश चुपचाप सुनता रहा। उसे साफ समझ आ गया कि इस आलीशान घर की रोशनी और दौलत के पीछे एक गहरा अंधेरा छिपा हुआ है। बाहर से यह घर किसी महल जैसा था। लेकिन अंदर से यह दर्द और खामोशी का कैदखाना बन चुका था। अब दिनेश का काम बिल्कुल स्पष्ट था। समय पर दवाइयां देना, खाना खिलाना, डॉक्टर की हिदायतों का पालन करना और जरूरत पड़ने पर उन्हें टहलाना।
पहले दिन से ही उसने निश्चय कर लिया कि वह इस काम को सिर्फ नौकरी समझकर नहीं बल्कि इंसानियत की सेवा समझकर करेगा। धीरे-धीरे घर में दिनेश की मौजूदगी महसूस होने लगी। सुबह उठकर मरीज की दवा और नाश्ता देना, दोपहर में उन्हें खाना खिलाना और शाम को टहलाने ले जाना यह उसकी दिनचर्या बन गई। राधिका कभी-कभी दूर खड़ी होकर दिनेश को देखती। उसे हैरानी होती कि एक बिल्कुल अजनबी लड़का जिसे अभी तक कोई जानता भी नहीं। उसके पति की इतनी सच्चाई से सेवा कर रहा है। एक दिन राधिका ने उससे कहा, दिनेश तुम्हें रोज यहां आने जाने में परेशानी होती होगी। अगर चाहो तो ऊपर वाला कमरा
खाली है। तुम यहीं रह सकते हो। दिनेश पहले तो हिचकिचाया। उसे लगा इतने बड़े घर में उसके जैसे साधारण इंसान के लिए जगे लेकिन राधिका की आंखों में सच्चाई थी। वो समझ गया कि यह प्रस्ताव सिर्फ उसकी सुविधा के लिए है। उसने सिर हिलाकर हां कर दी। अब दिनेश उसी घर के ऊपरी हिस्से में रहने लगा। उसका कमरा साधारण था। लेकिन उसके लिए वह किसी महल से कम नहीं था। दिन बीतते गए। दिनेश सिर्फ एक नौकर नहीं रहा बल्कि इस घर का हिस्सा सा बन गया। राधिका ने भी मन ही मन मान लिया था कि दिनेश का होना उनके लिए राहत है। कभी-कभी रात को जब घर में सन्नाटा फैल
जाता राधिका बरामदे में बैठी दूर तक ताकती रहती। उसकी आंखों में एक गहरी थकान और अधूरापन झलकता। दिनेश पास खड़ा होता और हल्की आवाज में कह देता मैडम रात चाहे कितनी भी अंधेरी हो सुबह जरूर आती है और हर सुबह अपने साथ नई उम्मीद लाती है। राधिका ने उसकी तरफ देखा उसकी आंखें भीग गई लेकिन होठों पर हल्की मुस्कान तैर आई। उस पल उनके बीच एक अनकहा रिश्ता बनने लगा। बिना शब्दों का सिर्फ एहसासों का। दिन बीतते गए। दिनेश पूरी ईमानदारी और समर्पण से राधिका के पति की देखभाल करता रहा। कभी दवा समय पर देना, कभी रात में उठकर उनका हाल देखना तो कभी डॉक्टर को बुलाना। यह सब
उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। राधिका यह सब देखती और मन ही मन सोचती कैसा अजन भी है। लेकिन आज मेरे टूटे घर का सबसे बड़ा सहारा यही है। उनकी आंखों में पहली बार यह एहसास आया कि दुनिया में अब भी कुछ लोग हैं जो सिर्फ इंसानियत के लिए जीते हैं। लेकिन बीमारी दिन-बदिन गहरी होती जा रही थी। डॉक्टरों ने भी धीरे-धीरे उम्मीद छोड़नी शुरू कर दी थी। राधिका बाहर से मजबूत दिखने की कोशिश करती। लेकिन अंदर से उनका दिल हर दिन टूट रहा था। दिनेश सब कुछ देख रहा था। वह समझ गया था कि अब ज्यादा समय नहीं बचा है। और फिर एक रात घर में गहरी खामोशी छा गई। राधिका के पति ने अपनी
आखिरी सांस ली। उस पल जैसे घर की दीवारें भी रो उठीन। राधिका अपने पति के पास बैठी थी। उसने पति को अपने हाथों से विदा किया। राधिका के आंखों से आंसू नहीं निकले। ऐसा लग रहा था मानो दुख इतना गहरा था कि आंसुओं ने भी हार मान ली हो। दिनेश पास ही खड़ा था। उसके लिए भी यह क्षण बेहद भारी था। उसने धीरे से कहा, मैडम आप अकेली नहीं है लेकिन वह जानता था यह ऐसा दर्द है जिसे कोई भी पूरी तरह बांट नहीं सकता। अगले कुछ दिनों तक घर का माहौल बिल्कुल वीरान रहा। हर जगह सिर्फ सन्नाटा और खालीपन था। राधिका की हालत देखकर दिनेश का दिल भर आता। लेकिन वह चुपचाप राधिका के पास खड़ा
रहता। कभी उसे पानी थमा देता। कभी बिना कुछ कहे घंटों पास बैठा रहता। उसकी मौजूदगी ही राधिका के लिए अब एक सहारा बन चुकी थी। लेकिन धीरे-धीरे दिनेश को लगने लगा कि शायद अब उसका वहां रहना राधिका के लिए बोझ बन रहा है। उसे अपने दुख का सामना अकेले करना होगा। एक सुबह उसने अपना सामान समेटा और राधिका से कहा, “मैडम, अब मुझे गांव लौट जाना चाहिए। मेरी मां और बहन मेरा इंतजार कर रही है। आपने मुझ पर जो भरोसा किया, मैं उसे कभी नहीं भूलूंगा। राधिका ने उसे रोकना चाहा। उसके होठ हिले। लेकिन शब्द गले में अटक गए और उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े। लेकिन वह चुप रही।
दिनेश आंगन की ओर बढ़ा। बाहर निकलते हुए उसने आखिरी बार पीछे मुड़कर देखा। राधिका दरवाजे पर खड़ी थी। सफेद साड़ी में बिखरे बालों के साथ। उनके चेहरे पर गहरा दुख था। लेकिन आंखों में एक अजीब सी चमक थी। जैसे कह रही हो तुम सिर्फ नौकर नहीं थे। तुम मेरे दर्द का हिस्सा बन गए थे। दिनेश ने गहरी सांस ली और गांव लौट गया। लेकिन उस आखिरी नजारे ने उसके दिल पर गहरी छाप छोड़ दी। गांव लौटकर दिनेश फिर से अपनी पुरानी जिम्मेदारियों में जुट गया। सुबह खेतों में काम करना, मां की देखभाल करना और बहन की चिंता करना यही उसकी दिनचर्या थी। लेकिन चाहे जितना भी व्यस्त हो उसके भीतर
एक खालीपन हमेशा बना रहता। रात को जब सब सो जाते, वो अक्सर चौपाल पर बैठकर आसमान की ओर ताकता। उसकी आंखों के सामने बार-बार वही दृश्य आता। दरवाजे पर खड़ी राधिका की छवि, सफेद साड़ी में बिखरे बाल और उन आंखों में छुपा गहरा दर्द। वह खुद से पूछता क्या यही हमारी आखिरी मुलाकात थी या किस्मत फिर से हमें मिलाएगी? महीनों गुजर गए। दिनेश ने खुद को काम में डुबोने की कोशिश की। लेकिन राधिका की यादें उसे बार-बार घेर लेती। और फिर एक दिन अचानक उसका फोन बजा। स्क्रीन पर जो नाम चमका उसे देखकर उसके दिल की धड़कनें तेज हो गई। राधिका मैडम कांपते हाथों से उसने कॉल
उठाया। उधर से धीमी टूटी हुई पर जानी पहचानी आवाज आई। दिनेश तुम कैसे हो? बहुत समय हो गया। तुम्हारे जाने के बाद यह घर और भी ज्यादा खाली हो गया है। सब कुछ वीरान सा लगता है। दिनेश कुछ क्षण चुप रहा। उसका गला भर आया। फिर धीरे से बोला, “मैडम, मैं ठीक हूं।” शायद आपको मेरी आदत हो गई थी। उधर से हल्की सी हंसी सुनाई दी। लेकिन उस हंसी में भी गहरा अकेलापन छुपा था। उस दिन के बाद उनकी बातें फिर से शुरू हो गई। कभी देर रात तक फोन पर लंबी बातचीत होती। कभी अचानक छोटे-छोटे मैसेज आ जाते। राधिका अपने दिन की थकान, कंपनी की जिम्मेदारियों
और अकेलेपन की बात करती। दिनेश अपनी मां की चिंता, बहन की पढ़ाई और गांव की मुश्किलों के किस्से सुनाता। धीरे-धीरे यह बातचीत दोस्ती से आगे बढ़ने लगी। दोनों को एक दूसरे की आदत हो गई। दिनेश अब उतना अकेला महसूस नहीं करता और राधिका को लगता कि कोई तो है जो उसे सच में समझता है। एक दिन राधिका ने अचानक कहा दिनेश अगर तुम्हें बुरा ना लगे तो क्या तुम फिर से शहर आ सकते हो? जब तुमसे बात करती हूं तो लगता है मेरी सांसे हल्की हो जाती है। दिनेश चौंक गया। उसने मां और बहन की जिम्मेदारियों के बारे में सोचा लेकिन दिल कहीं और खींच रहा था। बहुत सोच विचार के
बाद उसने फैसला किया कि वह शहर लौटेगा। इस बार उसने अपने लिए एक छोटा सा किराए का कमरा लिया ताकि वह स्वतंत्र रह सके। लेकिन सच तो यह था कि उसका मन बार-बार राधिका की ओर खींचता था। धीरे-धीरे उनकी मुलाकातें बढ़ने लगी। कभी कॉफी पर लंबी बातें, कभी बरामदे में चुपचाप बैठना तो कभी खिड़की से बाहर देखते हुए घंटों खामोश रहना। उन खामोशियों में भी एक अनकही भाषा थी जो दोनों समझते थे। फिर एक शाम बरामदे की खामोशी के बीच राधिका ने हिम्मत करके पूछा दिनेश क्या तुम्हें भी लगता है कि हमारे बीज जो है वह सिर्फ सहानुभूति नहीं है दिनेश की धड़कने तेज हो गई उसने राधिका के
आंखों में गहराई से देखा और धीरे से कहा हां मैडम यह सहानुभूति नहीं है यह कुछ और है शायद प्यार राधिका की आंखें नम हो गई उसने पहली बार बिना हिचक दिनेश का हाथ थाम लिया। उस फर्श में एक गहरी गर्माहट थी। जैसे टूटा दिल आखिरकार सहारा पा गया हो। दिनेश और राधिका का रिश्ता अब किसी रहस्य की तरह छुपा नहीं रहा। दोनों के बीच की नजदीकियां और भरोसा परिवारों तक पहुंच चुका था। राधिका के माता-पिता जो हमेशा अपनी बेटी की चिंता में डूबे रहते थे। पहली बार उसे दिल से मुस्कुराते हुए देखने लगे। उन्होंने सोचा हमारी बेटी ने इतनी कम उम्र में इतना बड़ा दुख सहा है। अगर दिनेश
उसकी जिंदगी में फिर से रोशनी ला सकता है तो इसमें बुराई क्या है? एक शाम राधिका के घर में परिवार के लोग इकट्ठा हुए। माहौल गंभीर था। राधिका के पिता ने दिनेश की तरफ देखा और शांत स्वर में कहा, बेटा हमने तुम्हें नजदीक से देखा है। तुम्हारा दिल साफ है। बहुत लोग हमारी बेटी से शादी करना चाहते थे। लेकिन उनकी नजर सिर्फ इस घर और संपत्ति पर थी। तुमने राधिका को इंसान समझा, उसका दर्द बांटा। यही सबसे बड़ी बात है। अगर राधिका तुम्हें चुनती है तो हमें कोई आपत्ति नहीं। राधिका की आंखों से आंसू ब निकले। उसने हल्की झिझक के साथ कहा, पापा,
मुझे दिनेश से बेहतर कोई नहीं मिल सकता। दिनेश का दिल तेजी से धड़क रहा था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि इतने बड़े परिवार ने उसे इतनी आसानी से स्वीकार कर लिया। लेकिन उसके मन में एक सवाल था। क्या उसकी मां इस रिश्ते को मंजूर करेंगी? कुछ दिन बाद राधिका अपने माता-पिता के साथ दिनेश के गांव पहुंची। वहां दिनेश की मां से उनकी मुलाकात हुई। सफेद बालों वाली उस साधारण औरत ने पहले थोड़ी झिझक दिखाई। लेकिन जब राधिका ने उनके पैर छुए और सिर झुकाकर आशीर्वाद मांगा तो उनका दिल पिघल गया। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, बेटी तुम मेरी बहू नहीं मेरी बेटी हो। उस एक
वाक्य ने सब कुछ आसान कर दिया। अब दोनों परिवारों की सहमति से दिनेश और राधिका का विवाह तय हो गया। शादी का दिन आया। गांव के छोटे से मंदिर में मंत्रों की गूंज, ढोल की थाप और दोनों परिवारों की हंसीखुशी ने उस दिन को यादगार बना दिया। माहौल भले ही सादा था। लेकिन उसमें सच्ची खुशी झलक रही थी। जब दिनेश ने राधिका के गले में मंगलसूत्र डाला तो उसकी आंखों में एक नया विश्वास चमक रहा था। शादी के बाद राधिका की कंपनी में दिनेश को एक अहम जिम्मेदारी दी गई। उसने अपनी मेहनत और ईमानदारी से सबका भरोसा जीत लिया। राधिका के जीवन का खालीपन अब भर चुका था। अब वह अकेली नहीं
थी। उसके साथ एक ऐसा साथी था जिसने उसके दुख के दिनों में सहारा दिया और अब उसकी खुशियों का हिस्सा बन गया। दोनों की जिंदगी अब भरोसे, प्रेम और नए सपनों से भर गई थी। दोस्तों, सच्चा प्यार अक्सर वहीं मिलता है जहां हम सोच भी नहीं पाते। इंसान की असली ताकत उसकी दौलत में नहीं बल्कि उसके दिल की सच्चाई और दूसरों के दुख को बांटने की क्षमता में होती है। लेकिन अगर आप दिनेश की जगह होते तो क्या राधिका जैसी विधवा महिला से शादी करते? अपनी राय कमेंट में जरूर बताइए। और हां, अगर यह कहानी दिल को छू गई हो तो वीडियो को लाइक कीजिए, शेयर कीजिए और चैनल स्टोरी बाय बीके को
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