96 साल की बुज़ुर्ग महिला ने बेघर आदमी को दे दिया अपना घर, लेकिन जब वह अंदर गया तो उसकी ज़िंदगी बदल गई!
वह फ़ैसला जिसने एक पूरे परिवार को हिला दिया
अंजली मेहरा हमेशा से अपने परिवार की रीढ़ रही थीं। छियानबे साल की उम्र में भी उनमें एक गरिमामयी शांति थी, जो केवल वही लोग लेकर चलते हैं जिन्होंने जीवन के तूफ़ानों को झेला हो। उनके पति राजेश का तीन साल पहले देहांत हो गया था — वे दोनों सत्तर साल तक साथ रहे। बच्चों ने लाख समझाया कि अब वह उनके साथ आकर रहें, लेकिन अंजली ने मना कर दिया।
“यह मेरा घर है,” वह अक्सर कहतीं, उनकी पतली सी आवाज़ लेकिन दृढ़। उनकी आँखों में उस औरत का अडिग जज़्बा झलकता था जिसने ज़िंदगी से लड़ते हुए हार मानना कभी नहीं सीखा।
लखनऊ की नेहरू स्ट्रीट पर बना वह घर महज़ ईंट-पत्थर नहीं था। वहीं उन्होंने अपने पति के साथ अपने तीन बच्चों को पाला-पोसा था। वहीं जन्मदिन मनाए गए, झगड़े हुए और फिर माफ़ी भी दी गई। वहीं उनकी इलायची वाली खीर की खुशबू दीवारों में आज भी बसी थी।
लेकिन समय हर जंग जीत लेता है। अंजली की सेहत बिगड़ने लगी। पहले उनके पाँव जवाब देने लगे, फिर याददाश्त ने धोखा देना शुरू किया। छियानवेवें साल की बसंत ऋतु में बच्चों ने मान लिया कि अब वह अकेले नहीं रह सकतीं।
कानपुर के नर्सिंग होम में शिफ़्ट होने के दिन, अंजली ने एक ऐसा फ़ैसला सुनाया जिसने सबको हिला दिया।
अपने पुराने झूले वाली कुर्सी पर बैठकर उन्होंने कहा:
“यह घर मोहन को मिलेगा।”
कविता चौंककर बोली: “मोहन? वह कौन?”
अंजली हल्की मुस्कान के साथ बोलीं: “मोहन शर्मा। वही, जो कोने की चाय की दुकान के पास बैठता है। सालों से मेरी मदद करता आया है।”
राकेश गरज पड़ा: “माँ, आप मज़ाक कर रही हैं क्या? हमारे पिता का घर एक अजनबी भिखारी को?”
अंजली की आँखें कठोर हो गईं। “मोहन अजनबी नहीं है। जब मेरी सब्ज़ियों की थैली फटकर सड़क पर बिखर गई थी, तुममें से कोई नहीं आया, न पड़ोसी। मोहन आया। उसने मुझे इंसान समझा। तभी से वह मेरे साथ है। बिना माँगे मदद करता है। यही कारण है कि यह घर उसे मिलेगा। दया को याद रखना चाहिए।”
बच्चे सन्न रह गए।
मोहन की कहानी
मोहन शर्मा छप्पन साल का था और उसकी ज़िंदगी दुखों की लंबी दास्तान थी। कभी वह वाराणसी में बढ़ई का काम करता था। पत्नी सुनीता और एक बेटी थी। लेकिन कमर की चोट ने उसकी रोज़ी-रोटी छीन ली। इलाज ने घर की सारी जमा-पूँजी खा ली। पत्नी छोड़कर चली गई, बेटी भी दूर हो गई। धीरे-धीरे वह बेघर हो गया।
सालों तक उसने स्टेशन के शेल्टरों और पुलों के नीचे रातें काटीं। लोग उसे नज़रअंदाज़ करते। पर अंजली अलग थीं।
हज़रतगंज बाज़ार के पास उनकी थैली फटी थी, सब्ज़ियाँ बिखर गईं। लोग किनारा कर गए, मगर मोहन झुककर सब समेट लाया। “सावधान रहिए अम्माजी,” उसने कहा।
अंजली ने उसकी तरफ़ देखा और बोलीं, “धन्यवाद बेटा।”
वह दिन उनकी दोस्ती की शुरुआत था। कभी वह उन्हें ठंडी सर्दियों में चाय देतीं, तो वह उनके आँगन की झाड़ू लगा देता। दोनों के बीच अपनापन पनपने लगा।
आख़िरी मुलाक़ात
नर्सिंग होम में जब वह आख़िरी बार मिले, अंजली ने उसका हाथ थामकर कहा:
“मोहन, यह घर तुम्हारा है।”
मोहन काँप गया। “अंजली जी, यह ज़रूरी नहीं—”
उन्होंने मुस्कुराकर कहा: “यह मेरा निर्णय है। क्योंकि तुमने मुझे देखा, जब किसी ने नहीं देखा।”
कुछ दिन बाद अंजली का देहांत हो गया।
मोहन शांति से रोया, परिवार के कोने में खड़ा। किसी ने उसकी तरफ़ ध्यान भी नहीं दिया।
नेहरू स्ट्रीट का घर और गुप्त ख़ज़ाना
पहली रात वह सो नहीं पाया। हर कोने में अंजली की यादें थीं — उनकी शॉल, उनके पर्दे, चंदन की खुशबू।
और फिर चौथे दिन उसे मिला राज़ — रसोई में आटे की बोरियों के बीच छुपा हुआ बंडल। उसने खोला तो उसमें रुपये की गड्डियाँ थीं। लाखों रुपये। गिनते-गिनते उसके हाथ काँप गए। यह तो एक करोड़ से भी अधिक था!
अंजली ने हमेशा सादगी से जीया, कभी धन का दिखावा नहीं किया। और अब यह सब मोहन के हाथों में था।
परिवार का ग़ुस्सा
लखनऊ की वक़ील की दफ़्तर में जब वसीयत पढ़ी गई, बच्चे भड़क उठे।
“यह पागलपन है!” कविता चिल्लाई।
“यह भिखारी है! ज़रूर माँ को बहलाया होगा!” राकेश चीखा।
लेकिन फिर वक़ील ने अंजली का अपना हाथ से लिखा नोट पढ़ा:
“मेरे प्यारे बच्चों, यह निर्णय तुम्हें चौंकाएगा। पर मोहन ने मुझे इंसान समझा, जब कोई और नहीं समझा। मैं यह घर उसे आभार में देती हूँ, नफ़रत में नहीं। स्नेह सहित — माँ।”
बच्चे गुस्से से तिलमिलाए, लेकिन सच को मिटा नहीं सके।
मोहन का बदला जीवन
पैसे उड़ाने का लोभ था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने घर की मरम्मत करवाई, अंजली का फर्नीचर संजोकर रखा, और रुपये का बड़ा हिस्सा लखनऊ व वाराणसी के बेघर आश्रमों में दान किया।
पड़ोसी जो पहले शक करते थे, अब सम्मान करने लगे। बच्चे उसे “मोहन अंकल” कहकर बुलाने लगे। पड़ोस की महिलाएँ त्यौहारों पर उसके लिए मिठाई लाने लगीं।
वह घर अब सिर्फ़ एक मकान नहीं रहा — वह उम्मीद का दीप बन गया।
आख़िरी विचार
अंजली की पुण्यतिथि पर मोहन ने उनकी तस्वीर के सामने दीया जलाया और धीरे से बोला:
“मुझे लगा तुमने मुझे एक घर दिया… लेकिन असल में तुमने मेरी ज़िंदगी लौटा दी।”
और मोहन समझ गया — अंजली ने उसे केवल ईंट-पत्थर नहीं दिए थे, उन्होंने उसे इज़्ज़त दी थी। इंसान होने का दर्जा दिया था।
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