यही तरह, मालकिन ने तीन बच्चों को जन्म दिया और दासी को आदेश दिया कि सबसे साँवले को दूर ले जाए।
किस्मत ने बाद में बहुत महँगा बदला लिया।

नमस्कार, मैं आरव मेहतागूँज-गुलामी का कथावाचक।
आज तुम एक ऐसी कहानी सुनने जा रहे हो जो दिल की गहराइयों को हिला देगी।
शुरू करने से पहले—बताओ, तुम हमें कहाँ से सुन रहे हो?
हमारी कहानियाँ कितनी दूर तक पहुँचती हैं, यह जानना अद्भुत है।

तैयार हो जाइए—भावनाएँ अब शुरू होती हैं।

🌙 सन् 1852 का मार्च—शांति हवेली पर भारी रात उतरी थी।

यह सब गंगा दोआब के एक बड़े ज़मींदारी एस्टेट में हुआ था।
हवा में पके गन्ने और गीली मिट्टी की महक थी।

हवेली के भीतर खून, पसीना और डर की गंध भरी थी।
ज़मींदार की पत्नी अमृता चौधरी प्रसव की पीड़ा में चीख रही थी।
गाढ़े लाल मखमली परदे हर दर्द की लहर के साथ काँप रहे थे।

तीन सरसों के तेल के दीए की रोशनी में
दाई देवकी बाई का पीलापन चेहरा दिखाई दे रहा था।
वह पहला बच्चा खींच लाई, फिर दूसरा।

जब तीसरा आया—
रात का सन्नाटा टूट गया।
वह बच्चा भाइयों से ज़्यादा साँवला था।

😠 अमृता की नफ़रत और आदेश

पसीने से भीगे खुले बाल उसके चेहरे से चिपके थे।
उसने हरे आँखें खोली, दाँत भींचकर फुसफुसाई—

“इसे अभी यहाँ से ले जाओ।”

रसोई में बिंदिया ने यह पुकार सुनी।
उसकी पीठ पर कोड़ों के निशान थे,
हाथ नदी पर कपड़े धोते-धोते पत्थर जैसे हो चुके थे।

वह काँपती सीढ़ियाँ चढ़कर कमरे में पहुँची।
देवकी बाई ने खून लगे सफेद कपड़ों में लिपटा बच्चा उसके हाथों में थमा दिया।

“उसे दूर ले जाओ।
कभी वापस मत आना।”

बिंदिया ने उस मासूम चेहरे को देखा—
छोटा, शांत, निर्दोष।
पर वह जान गई—
यह बच्चा बहुत साँवला था।
ज़मींदार रघुनाथ चौधरी को शक नहीं होना चाहिए था।

🌑 बिंदिया—दर्द, डर और फ़ैसला

हवेली चाँदनी में डूबी थी।
बिंदिया नंगे पाँव गन्ने के खेतों से गुज़र रही थी।
ठंडी हवा उसकी फटी सूती साड़ी को चीर रही थी।

एक ओर हवेली की रोशनी,
दूसरी ओर मजदूरों की अँधेरी बस्ती—
जहाँ उसकी छह साल की बेटी जोहना सो रही थी।

“भगवान… मुझे क्षमा करना।”

उसने बच्चे को सीने से चिपकाया।
उसके हल्के रोने की आवाज़ रात में घुल गई।

वह जानती थी—
यदि वह बच्चे को वापस लाती,
तो उसे मार-मारकर खत्म कर दिया जाता।
यदि आदेश मानती—
तो उसकी आत्मा टूट जाती।

वह घंटों चलती रही,
जब तक कि ज़मींदारी का किनारा न आ गया।
वहाँ जंगल शुरू होता था।

झाड़ियों के भीतर एक पुरानी, टूटी मिट्टी की झोंपड़ी थी—
कभी एक मुंशी की थी, जो हैजा से मरा था।

बिंदिया ने बच्चे को पुरानी चादर पर सुलाया।

“तुम इससे बेहतर के हकदार थे… मेरे बेटे…”
शब्द सच नहीं थे,
लेकिन जन्मा दर्द सच था।

🌤 सुबह—और मौत का डर

सुबह वह रसोई के दरवाज़े से लौटी।
उसके हाथ काँप रहे थे।
आँसू सूख चुके थे।

तभी घोड़ों की तेज़ टापें गूँजीं—
उसका खून जम गया।

ज़मींदार रघुनाथ चौधरी
कलकत्ता से तय समय से पहले आ गया था।

वह चिल्ला रहा था—
“मेरी पत्नी कहाँ है? बच्चे हुए या नहीं?”

बिंदिया अनाज-कोठरी के पीछे छिप गई।

🧔 रघुनाथ—गर्व, शक और झूठ

वह सीढ़ियों पर लड़खड़ाता हुआ ऊपर गया।
लंबा आदमी, मोटी मूँछें, कठोर आँखें—
काले कोट पर धूल जमी हुई थी।

गलियारे में उसकी भेंट देवकी बाई से हुई।

“कितने बच्चे हुए?”
उसने कंधा पकड़कर पूछा।

देवकी बाई ने जल्दबाज़ी में कहा—

“तीन बच्चे हुए, साहब।
ईश्वर की अनोखी देन।”

रघुनाथ खुश हुआ—
लेकिन कमरे में घुसकर देखा
तो बिस्तर पर केवल दो बच्चे थे।

अमृता ने कमजोर स्वर में, रोकर कहा—

“तीन हुए थे…
पर एक बहुत कमजोर था।
सांस नहीं ले पाया।
ईश्वर उसे वापस ले गया…”

रघुनाथ ठिठक गया।
उसकी खुशी बुझ गई।

“मर गया?”

अमृता ने सिर हिलाया—
देवकी बाई उसे तुरंत दफना आई थी।

रघुनाथ ने लंबी सांस ली,
फिर कहा—

“ईश्वर देता है, ईश्वर लेता है।”

और दो बच्चों का नाम रखा—
बिनय और भास्कर

बिंदिया परछाइयों में छिपकर सब सुन रही थी।
सारा झूठ, सारा अपराध—
उसके सीने में चाकू की तरह धँस गया।

🌑 बच्चा—एक “भूत”, एक “राज़”

वह तीसरा बच्चा
अब आधिकारिक रूप से मरा हुआ था।
एक छिपा सच—
जिसकी साँसें जंगल में चल रही थीं।

अगले दिन सब सामान्य दिखने लगा।

अमृता आराम कर रही थी।
दोनों “सफेद चमड़ी वाले” जुड़वाँ
दूध पी रहे थे।
रघुनाथ खेतों में घूमता, कामगारों पर चिल्लाता।
उसे क्या पता—
उसका असली खून
जंगल की छाया में ज़िंदा था।

बिंदिया दिन-रात काम करती,
पर दिमाग उस छोड़े हुए बच्चे में अटका रहता।
हर रात वह भगवान से माफी मांगती।

जोहना ने अपनी माँ के बदलते हावभाव देखे।
पर बिंदिया कुछ नहीं बताती।

🌌 तीन दिन बाद—सच का टूटना

एक अमावस की रात
बिंदिया भागकर जंगल की झोंपड़ी पहुँची।

वह उम्मीद कर रही थी कि बच्चा मर गया होगा।

पर अंदर से कमज़ोर रोने की आवाज़ आई।

वह दौड़ी—
बच्चा ज़िंदा था।
ठंडा, भूखा, काँपता हुआ—
पर ज़िंदा।

बिंदिया घुटनों के बल गिर पड़ी—

“चमत्कार…”

उसने निर्णय लिया—
वह उसे नहीं छोड़ेगी।
हर रात आएगी, छिपकर पालेगी।
उसका नाम रखा—

भरन

🪔 पाँच साल बाद—दो दुनिया, एक सच

शांति हवेली फल-फूल रही थी।
जुड़वाँ बच्चे राजकुमारों जैसे पल रहे थे—
लीनन के कपड़े, फ़्रेंच सीखना, टट्टू पर सवारी।
उनकी आँखों में गर्व… और घमंड।

भरन—सांवला, घुँघराले बाल, चमकती आँखें—
जंगल में, अँधेरे में,
माँ के प्यार की रोशनी में पनप रहा था।

बिंदिया हर रात उसे खाना, कपड़ा, प्यार देती।
उसे छिपना सिखाती—

“अगर रघुनाथ को पता चला…
तो वह हमें मार देगा।”

भरन ने कभी अपने भाइयों को नहीं देखा था।
न अपने पिता को।

👁 जोहना—सच्चाई का पता लगाती है

जोहना अब ग्यारह साल की हो चुकी थी।
उसने अपनी माँ की गुप्त ग़ैरमौजूदगी देखकर
संदेह करना शुरू किया।

एक रात वह चुपके से माँ का पीछा करती हुई
जंगल पहुँची।

झोंपड़ी की दरार से देखा—

बिंदिया
एक अजनबी बच्चे को गोद में झुला रही थी,
उसे लोरी सुना रही थी।

जोहना का दिल भर आया।
यह बच्चा कौन था?

अगले दिन उसने माँ से पूछा—

“उस जंगल वाले बच्चे का सच क्या है, माँ?”

बिंदिया जम गई।
होंठ काँपने लगे।

जोहना बोली—

“वह मेरा भाई है… है ना?”

बिंदिया बैठ गई—
और पूरा सच बताया।

जोहना रो पड़ी—

“वह ज़मींदार का बेटा है…
बिनय और भास्कर का भाई…”

फिर फुसफुसाई—

“अगर उन्होंने पता लगा लिया तो…?”

बिंदिया ने उसका हाथ पकड़ा—

“तो वे भरन को मार देंगे,
मुझे भी…
और शायद तुम्हें भी।”

भय हवा में टँगा रहा।
जोहना ने वादा किया कि वह राज़ छुपाएगी,
परंतु यह सच उसे भीतर से बदल गया।

उसने हवेली के जुड़वाँ बच्चों—बिनय और भास्कर—को नए नज़रों से देखना शुरू किया।
वे भरन के भाई थे।
एक ही खून—पर दो अलग दुनिया।

अन्याय उसकी नसों में खौलता रहा।

साल धीरे-धीरे बीतते गए।
भरन बड़ा हुआ—साहसी, बुद्धिमान,
जंगल में जीवित रहना सीखा—
जंगल के पक्षियों से बातें करना,
छोटे जानवर पकड़ना, नदी में मछली पकड़ना।

बिंदिया हर रात उसे देखने आती।
लेकिन डर बढ़ता जा रहा था—
बच्चा बड़ा हो रहा था,
उसे छुपाना कठिन।

मैं हवेली क्यों नहीं जा सकता, माँ बिंदिया?
वह मासूमियत से पूछता।
उधर इशारा करते हुए।

बिंदिया की आँखें भर आतीं—
वहाँ तेरी जगह नहीं है, बेटे।

पर यह उत्तर अब उसे नहीं रोक पाता था।

🐅 अगस्त की दोपहर—सब कुछ टूट गया

एक दिन बिनय और भास्कर—जो अब दस वर्ष के थे—
अपनी शिक्षिका से छिपकर घोड़ों पर सवार होकर जंगल की ओर निकल पड़े।

वे खिलौना बन्दूकें लिए रोमांच खोजते हुए चिल्लाते—

“चलो बाघ ढूँढते हैं!”

जंगल में गहराई तक घुसते ही
उन्हें एक धीमी सीटी सुनाई दी।
घोड़े रुक गए।

उन्होंने झोंपड़ी देखी—
मिट्टी की टूटी दीवारें,
और बाहर बैठा एक सांवला, नंगे पाँव, फटे कपड़ों में लिपटा लड़का—भरन

वह उदास धुन सीटी में बजा रहा था।
भरन ने नज़र उठाई।
दो गोरी चमड़ी वाले बच्चे—घोड़ों पर—अमीरों की तरह सजे हुए—
उसे घूर रहे थे।

वह जम गया।

कौन हो तुम?
भास्कर ने पूछा।

भरन चुप रहा—
उसे सिखाया गया था कि नजर मत आना

लेकिन अब देर हो चुकी थी।

बिनय हँसा—
यह जंगल में रहने वाला कोई भगोड़ा बच्चा होगा।
इसकी खबर पिता को देनी चाहिए।

भास्कर झिझका—
उसे भरन की आँखें जानी-पहचानी लगीं—
चेहरे का झुकाव,
भौंहें सिकोड़ने का तरीका—
सब कुछ परिचित…

तुम यहाँ रहते हो?
भास्कर ने पूछा।

भरन ने सिर हिलाया—

“नहीं… माँ बिंदिया मुझे देखने आती हैं।”

बिंदिया।
यह नाम सुनते ही दोनों भाई सन्न रह गए।

वह तो हवेली में काम करती थी
तो वह इस छुपे हुए बच्चे की देखभाल क्यों करती?

उस रात दोनों भाई चुपचाप हवेली लौटे।
उन्होंने पिता को कुछ नहीं बताया।
पर भीतर का रहस्य उन्हें निगल रहा था।

कौन था वह लड़का?
क्यों छुपाया गया?
क्यों वह उनसे इतना मिलता-जुलता था?

🌙 जाँच शुरू होती है

बिनय ने फैसला किया—
वह सच्चाई पता लगाएगा।

एक रात उसने देखा कि बिंदिया खाना लेकर निकली।
वह बिना आवाज़ किए उसके पीछे चला।
जंगल में, झोंपड़ी के पीछे छिपकर खड़ा रहा।

अंदर से आवाज़ आई—

“मेरे बच्चे… तू भी उतना ही महत्वपूर्ण है
जितने उस हवेली के बच्चे।”

बिनय का खून जम गया।
वह भागा,
भास्कर को जगाया—

“उसने उसे बेटा कहा!
कहती है कि वह भी हमारे बराबर है!”

दोनों भाई रातभर नहीं सोए।
सारी कड़ियाँ मिलने लगीं—

तीनों की उम्र एक जैसी।
बिंदिया प्रसव वाले दिन हवेली में थी।
“मरा हुआ भाई”—क्या यह झूठ था?

बीज बोया जा चुका था।

🔥 दिसंबर—सच का सामना

जुड़वाँ भाई फिर जंगल गए।
इस बार दूर से भरन को देखा—

वह पक्षियों से बातें करता,
मिट्टी से खिलौने बनाता,
सीधा वही चेहरा—
वही बादाम जैसे आँखें,
वही ठुड्डी का गड्ढा—
ठीक वैसा जैसा रघुनाथ चौधरी का।

अब सच उनसे छिपा नहीं।

एक शाम बिनय बोला—

“हम माँ से पूछेंगे।
अब यह सहा नहीं जाता।”

वे बरामदे में पहुँचे जहाँ अमृता चाय पीते हुए कढ़ाई कर रही थी।

उसने बेटों को देखा—
उसका खून ठंडा हो गया।

माँ…
आपने हमारे भाई की मौत के बारे में झूठ बोला।

बिनय ने कहा।

अमृता के हाथों से प्याली गिर गई।

“क्या बकवास—”

भास्कर आगे बढ़ा—
आँखें भर आईं—

“हमने उस बच्चे को देखा है।
बिंदिया उसकी देखभाल करती है।
वह हमारा भाई है… है ना?”

सन्नाटा टूट नहीं रहा था।

फिर अमृता टूट गई—
बेकाबू होकर रोते हुए बोली—

“हाँ…
वह तुम्हारा भाई है।
वह तुम्हारे साथ ही जन्मा था…
लेकिन वह साँवला था।
मैंने डर के मारे…
समाज के डर से…
तुम्हारे पिता के डर से…
उसे हटाने का आदेश दिया।”

जुड़वाँ कांपते रहे।

आपने हमारे भाई को मरवाया।

अमृता ने सिर हिलाया—
“मैंने सोचा वह मर गया होगा…
मुझे पता नहीं था कि बिंदिया उसे बचा लेगी…”

बिनय चीखता हुआ भाग गया।
भास्कर ने फुसफुसाया—

“आपने यह कैसे किया, माँ?”

अमृता ज़मीन पर गिर गई—
टूटी हुई।

⚡ उस रात—अकल्पनीय घटना

बिनय सीधे पिता रघुनाथ चौधरी के कमरे में पहुँचा।
वह हिसाब-किताब देख रहे थे।

बिनय बोला—

“पिता… आपका एक और बेटा है।
वह मरा नहीं।
वह जंगल में छुपा है।
माँ ने बिंदिया को उसे गायब करने को कहा था।”

रघुनाथ जड़ हो गया—
फिर खून उबलने लगा।

“दोबारा कहो!”

जब उसने दोहराया—
रघुनाथ ने मेज उलट दी।
काग़ज़ उड़ गए।

वह गरजा—
बिंदिया को लाओ!

⛓ बिंदिया—मौत के सामने भी सच

बिंदिया को घसीटकर लाया गया।
ज़ंजीरें खनक रही थीं।

रघुनाथ ने कोड़े के साथ पूछा—

क्या तूने मेरे बेटे को छुपाया?

बिंदिया—घुटनों पर—
पर आँखें झुकी नहीं।

“हाँ, साहब।
मालकिन ने मुझे उसे मरवाने को कहा था।
पर मैं नहीं कर सकी।
मैंने उसे भूख और ठंड में पाला…
लेकिन मरने नहीं दिया।”

उसकी सच्चाई ने सबको स्तब्ध कर दिया।

वह कहाँ है?

“पुरानी झोंपड़ी में…
नाले के पास…”

👣 भरन को हवेली में लाना

आदेश गया—

“उसे अभी यहाँ लाओ!”

सैनिक भरन को लेकर आए—
डर से काँपता, नंगे पैर, धूल से भरा।

माँ बिंदिया!
वह चिल्लाया।

रघुनाथ ने उसे देखा—
और उसमें अपने ही चेहरे की छाप देखी—
ठुड्डी, आँखें, भौंहें—

यह उसका बेटा था।

उसने बरामदे पर खड़ी रोती अमृता को देखा—
कुछ अंदर से टूट गया।

वह गरजा—

“यह बच्चा चौधरी है।
मेरी नस्ल।
खून छुपता नहीं!”

फिर उसने घोषणा की—

“बिंदिया…
तू आज़ाद है।
तेरी बेटी जोहना भी।”

बिंदिया फूटकर रो पड़ी।
जोहना दौड़कर उससे लिपट गई।

🌅 भरन—छाया से प्रकाश की ओर

रघुनाथ ने भरन को हवेली के सामने खड़ा किया—

“आज से तू यहाँ रहेगा।
सीखेगा, पढ़ेगा, जियेगा…
जैसे मेरा बेटा।”

अमृता रोती रही—
लेकिन अब सच पिंजरे में नहीं लौट सकता था।

भरन ने डरते हुए बिंदिया की ओर देखा।
वह मुस्कुराई—

“जा, मेरे बेटे…
अपनी असली ज़िंदगी जी।”

📚 वर्ष बीतते गए—एक नया अध्याय

भरन ने पढ़ाई की, संगीत सीखा,
भाइयों के साथ बड़ा हुआ—
पर जड़ें नहीं भूला।

बिंदिया और जोहना
अब आज़ाद स्त्रियाँ—
एक छोटे घर में रहतीं।

भरन रोज़ उनसे मिलने आता,
उनके लिए अनाज, कपड़े, दवाइयाँ लाता।

20 वर्ष की आयु में
उसने अपने हिस्से की संपत्ति बेची—
और उस धन से
दर्जनों गुलामों को आज़ाद करवाया।

मरते समय
रघुनाथ ने उसका हाथ पकड़कर कहा—

“तू मुझसे बेहतर है…
हम सब से बेहतर।”

🌺 बिंदिया—माँ जिसने मौत को चुनौती दी

65 वर्ष की उम्र में
वह भरन, जोहना और पोतों से घिरी विदा हुई।

भरन ने उसका हाथ पकड़कर फुसफुसाया—

“धन्यवाद, माँ…
मुझे ज़िंदगी देने के लिए।”

🌞 भरन—दो दुनियाओं का पुल

वह समझ चुका था—

दुनिया को बाँटना आसान है,
पर जोड़ना कठिन।
उसने दीवार नहीं—पुल बनने का चयन किया।

जिस बच्चे को मिटा देने की कोशिश हुई थी—
वही कईयों के लिए प्रकाश बन गया।

🌟 संदेश

यह कहानी याद दिलाती है—

सच्चा मूल्य रंग में नहीं,
बल्कि हृदय में है।

पूर्वाग्रह जानें लेता है,
पर प्रेम—उन्हें वापस देता है।