जब एक पिता अपने बेटे से मिलने की खुशी में बरसों की थकान भूल जाए तो समझ लेना चाहिए कि उसने अपने जीवन की सबसे बड़ी पूंजी आज लुटा दी है। क्योंकि उम्मीदें जब दिल के सबसे नाजुक कोने से जुड़ी हो तो उनका टूटना इंसान को भीतर से तोड़ देता है बिना आवाज किए। शहर के सबसे बड़े प्राइवेट हॉस्पिटल के सामने दोपहर की धूप में एक वृद्ध व्यक्ति खड़ा था। पसीने से भीगे हुए कपड़े, आंखों में चमक और चेहरे पर एक साधारण सी लेकिन बेहद सच्ची मुस्कान। नाम था उनका श्री राजकुमार प्रसाद। पेशे से रिक्शा चालक। उम्र लगभग 55 के पार। लेकिन आज उनके चेहरे पर एक बच्चे जैसी खुशी थी।
क्योंकि वह अपने बेटे से मिलने आए थे। अपने उस बेटे से जिसे उन्होंने अपना पेट काट कर पढ़ाया था। जिसे कभी पैसों के अभाव में मां खोनी पड़ी थी। लेकिन उस दुख को ताकत बनाकर उन्होंने ठान लिया था। मेरा बेटा डॉक्टर बनेगा ताकि किसी और गरीब की मां इलाज के बिना दम ना तोड़े। आज वही बेटा डॉक्टर विवेक इसी अस्पताल में डॉक्टर बनकर कार्यरत था। गेट पर खड़े सुरक्षाकर्मी ने जब राजकुमार जी को रोका तो उन्होंने मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा बेटा मुझे डॉक्टर विवेक से मिलना है। वो मेरे पुत्र हैं। यही कार्य करते हैं। गार्ड ने ऊपर से नीचे तक उन्हें देखा।
उनके पसीने से सने कपड़े, थकी हुई चाल और टूटी चप्पलें देखकर वो थोड़ा उपहास से बोला, बाबा आप कह रहे हो डॉक्टर साहब आपके बेटे हैं। क्या आप मजाक कर रहे हैं? श्री राजकुमार जी अब भी उसी गरिमामय लहजे में बोले नहीं बेटा मैंने उन्हें पढ़ाया है रिक्शा चलाकर मेहनत करके वो आज डॉक्टर है और मेरा ही बेटा है गार्ड को थोड़ा संदेह हुआ फिर भी भीतर चला गया अंदर वातानुकूलित केबिन में सफेद कोट पहने चमकती कुर्सी पर बैठा डॉक्टर विवेक अपने दो सहकर्मियों के साथ केस डिस्कस कर रहा था जब गार्ड ने जाकर कहा सर बाहर एक बुजुर्ग आए नाम बता रहे हैं श्री राजकुमार। कह रहे हैं आप
उनके पुत्र हैं। विवेक एक पल के लिए बिल्कुल शांत हो गया। चेहरे से रंग उड़ गया। आंखें झुक गई और होठ एक पल के लिए जम से गए। उसके सामने बैठी डॉक्टर रिद्धिमा ने सवाल भरी नजरों से देखा क्योंकि दो दिन पहले ही विवेक ने पूरे स्टाफ से कहा था कि उसके पिता एक बड़े बिजनेसमैन है जो विदेश में रहते हैं। विवेक ने कुर्सी की बाह को कसकर पकड़ा और फिर बहुत धीमे स्वर में बोला बोल दो मैं किसी राजकुमार प्रसाद को नहीं जानता। गार्ड हैरान रह गया। लेकिन जैसा आदेश मिला वो बाहर चला गया। बाहर गेट के पास अब भी श्री राजकुमार जी उसी सादगी से खड़े थे। नजरें बार-बार दरवाजे की ओर
जा रही थी। दिल कह रहा था अब मेरा बेटा दौड़ता हुआ आएगा। गले से लग जाएगा। कहेगा पिताजी आप अचानक लेकिन गार्ड ने आकर जो कहा उसने उनके मन को अंदर तक झकझोर दिया। बाबा डॉक्टर साहब ने मना कर दिया। कह रहे हैं वो आपको जानते ही नहीं। राजकुमार प्रसाद जी कुछ पल चुप रहे। फिर उन्होंने अपने रिक्शे की हैंडल को थामा और बहुत शांत भाव से वहां से लौटने लगे। उनकी चाल में अब थकावट नहीं थी। बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने अपने शरीर से नहीं आत्मा से हार मान ली हो। रास्ते भर ना उन्होंने किसी को रोका। ना किसी से कुछ कहा। बस आंखें झुकी थी। और मन में एक ही बात चल
रही थी। क्या सच में मेरे बेटे ने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया। वह सड़क जिस पर बरसों तक उन्होंने अपने रिक्शे की घंटी बजाई थी। आज उसी सड़क पर उनके कदम कांप रहे थे। लेकिन थकावट से नहीं बल्कि उस बेटे की बेरुखी से जिसे कभी अपने कंधों पर बिठाकर स्कूल छोड़ने जाया करते थे। राजकुमार प्रसाद जी अब भी कुछ नहीं बोले थे। ना किसी से शिकायत की ना ही अपने बेटे विवेक को कोसा। बस मन ही मन सोचते जा रहे थे। कहीं गलती मुझसे ही तो नहीं हो गई थी। क्या मैंने जरूरत से ज्यादा उसे आगे बढ़ा दिया? घर पहुंचते ही उन्होंने चुपचाप रिक्शा को एक कोने में लगाया। दरवाजा खोला
और खामोशी से अंदर चले गए। छोटा बेटा सुनील तभी सामने आया। बाबूजी आप इतनी जल्दी लौट आए और आप इतने उदास क्यों लग रहे हैं? राजकुमार जी कुछ कह नहीं पाए। बस नजरें चुराने लगे। लेकिन जब सुनील ने बार-बार पूछा और उनके हाथ पकड़ कर जिद की। बाबूजी मुझे बताइए ना क्या हुआ? तो तब जाकर वो सन्नाटा टूटा और आंखों से आंसुओं की धार निकली। राजकुमार जी धीमे स्वर में बोले आज मैं तेरे बड़े भाई विवेक से मिलने गया था। उसी अस्पताल में जहां वो डॉक्टर बना है। लेकिन उसने मुझे पहचानने से ही इंकार कर दिया बेटा। इतना कहते ही उनकी आवाज लड़खड़ा गई। सुनील स्तब्ध रह गया।
क्या भैया ने आपको पहचानने से मना कर दिया? ऐसा कैसे हो सकता है बाबूजी? राजकुमार जी ने आंखें पोंछते हुए कहा, शायद उसे अब हमसे शर्म आती है बेटा। हम तो वही रिक्शा वाले हैं ना और वह अब बड़ा डॉक्टर बन गया है। उसकी दुनिया अब अलग हो गई है। सुनील का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने तमतमाते स्वर में कहा नहीं बाबूजी मैं चलूंगा आपके साथ और मैं खुद जाकर पूछूंगा क्या वो मुझे भी पहचानने से इंकार करेगा लेकिन श्री राजकुमार जी ने उसका हाथ थाम लिया आवाज में वही पिता वाला ठहराव था नहीं बेटा अब जाने का कोई मतलब नहीं है जिसे जब अपनों की कदर नहीं होती
तब उसे समझाने से कुछ नहीं मिलता मैं अब कुछ नहीं कहूंगा बस इतना जानता हूं कि मैंने अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ी थी। वह चाहे माने या ना माने सुनील वही चुप हो गया। लेकिन अंदर ही अंदर उसका दिल भी टूट चुका था। घर में अब एक सन्नाटा पसरा था। रात का खाना भी बिना शब्दों के निपट गया। और दूसरी ओर उसी समय अस्पताल की ऊंची दीवारों के भीतर डॉक्टर विवेक के सामने सब कुछ सामान्य था। जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। लेकिन नियति सब देख रही थी और इंतजार कर रही थी उस एक पल का जब विवेक को उसके किए का आईना दिखाया जाएगा और उस शीशे में वह खुद को देख नहीं पाएगा। वो रात
किसी और की तरह नहीं थी। उस कमरे में जहां कभी हंसी गूंजती थी। आज सिर्फ खामोशी पसरी थी। दीवार की घड़ी की टिक टिक और श्री राजकुमार प्रसाद की सूखी आंखें ही इस बात की गवाही दे रही थी कि कोई गहरी चोट दिल में उतर चुकी है। रात भर नींद उनके पास नहीं आई। वो बार-बार करवट बदलते रहे और आंखें छत पर टिकाए सोचते रहे। जिस बेटे की पहली फीस भरने के लिए मैंने साहूकार से ब्याज पर पैसे लिए। जिसके पहले बस्ते की कीमत चुकाने के लिए मैं खुद नंगे पांव चला। क्या वही बेटा आज मुझसे रिश्ता तोड़ चुका है। सुबह होते ही उन्होंने फिर से वही टूटी चप्पलें पहनी। चेहरे पर वही
पुरानी मुस्कान ओढ़ ली और निकल पड़े रिक्शा लेकर क्योंकि भूख, दर्द और अपमान सबको पीछे छोड़कर भी जिंदगी रुकती नहीं। इधर अस्पताल में डॉक्टर विवेक के चारों तरफ तारीफें थी। सहकर्मियों की सराहनाएं थी। लेकिन दिल के किसी कोने में एक अजीब सी बेचैनी घर कर चुकी थी। बार-बार उसका मन अतीत की ओर खींच रहा था। जब वह अपने पिता के साथ स्कूल जाया करता था। जब उसके जूतों में छेद हो जाया करते थे तो बाबूजी खुद नंगे पांव चलकर उसके लिए जूते खरीद लाते थे। लेकिन वह बेचैनी तब भी बहुत छोटी थी। जब तक कि अस्पताल में वह केस नहीं आया जो विवेक के भीतर छुपे हुए इंसान को तोड़कर
रख देने वाला था। तीन दिन बाद एक गरीब व्यक्ति धूल में सना फटे कपड़े पहने गोद में एक बेहोश बच्चे को लेकर हॉस्पिटल के दरवाजे पर चिल्लाता हुआ आया डॉक्टर बाबू मेरे बेटे को बचा लीजिए मैं एक गरीब हूं लेकिन यह देखिए पैसे हैं मेरे पास जितना चाहिए ले लीजिए बस मेरे बेटा को बचा लीजिए वो दृश्य देख पूरा स्टाफ दौड़ पड़ा और डॉक्टर विवेक भी उस बच्चे के इलाज में में जुट गया। लेकिन जब वो उस गरीब पिता को देखता है तो उसे किसी और की छवि बार-बार दिखने लगती है। उसके पसीने से भीगे चेहरे में उस घबराहट भरी आवाज में उसकी आंखों की वो मिन्नतें वो सब
किसी और की याद दिला रही थी। उस पिता की जो तीन दिन पहले उस जैसे ही चुपचाप अस्पताल के गेट पर खड़ा था। उसी उम्मीद के साथ उसी बेचैनी के साथ विवेक अचानक कांप उठा। उसने बच्ची का इलाज पूरा किया और बाहर आकर अकेले में सांस लेने लगा। लेकिन अब दिल की दीवारें धड़क चुकी थी और आत्मा चीख रही थी। तूने क्या किया विवेक? तूने अपने ही पिता को ठुकरा दिया। ठीक वैसे ही जैसे आज तू इस आदमी के दर्द को समझ पा रहा है। उस रात विवेक सो नहीं पाया और सुबह उठते ही उसने पहली बार मोबाइल उठाया। लेकिन कॉल करने से पहले ही उसने खुद को झूठे शब्दों से घेर लिया। अब कॉल कर भी
लूं तो क्या कहूंगा बाबूजी से? और यही सोचते-सचते वो सीधा निकल पड़ा। अपने पिता राजकुमार प्रसाद जी के घर की ओर। सुबह की हल्की धूप घर की दीवारों से टकरा रही थी। लेकिन उस घर में रोशनी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। क्योंकि जहां दिल बुझ जाते हैं, वहां सूरज की रोशनी भी अक्सर फीकी लगने लगती है। राजकुमार प्रसाद जी आज भी रोज की तरह उठे थे। लेकिन उनके चेहरे पर अब वह जीवता नहीं थी। जैसे कोई भीतर ही भीतर टूट चुका हो। सुबह की चाय ठंडी हो चुकी थी। लेकिन वह अब भी उसी कुर्सी पर चुपचाप बैठे थे। आंखों से बहते आंसुओं को कोई देख ना
ले। इसलिए बार-बार गमछे के कोने से पछ लिया करते थे। अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। सुनील ने जैसे ही दरवाजा खोला, सामने खड़ा था विवेक। वही विवेक जिसने तीन दिन पहले अपने ही पिता को पहचानने से इंकार कर दिया था। आज उसी बेटे की आंखें झुकी हुई थी। और हाथ कांप रहे थे। सुनील ने एक पल के लिए कुछ नहीं कहा। बस नजरें गुस्से से तप रही थी। लेकिन विवेक बिना कुछ बोले सीधे भीतर गया और वहां बैठे अपने पिताजी को देखकर वही जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया। गला रुंधा हुआ था। आवाज कांप रही थी। आंखों से आंसू झरने लगे। धीरे से बोला बाबूजी मुझे माफ
कर दीजिए। मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी। राजकुमार जी चौंक गए। उन्होंने अपनी कमजोर आंखों को थोड़ा ऊपर उठाया। वह समझ ही नहीं पाए कि यह वही बेटा है जिसने तीन दिन पहले उन्हें दुनिया के सामने अपना पिता मानने से इंकार कर दिया था। विवेक अब उनके चरणों में सिर रख चुका था और बार-बार रोते हुए कह रहा था बाबूजी मैं झूठी ही इज्जत के पीछे भागता रहा। मैं डरता रहा कि लोग क्या कहेंगे अगर उन्हें पता चले कि मेरा बाप रिक्शा चलाता है। लेकिन आज आज मैं जान चुका हूं कि दुनिया की सबसे बड़ी इज्जत वही होती है जो एक बाप अपने पसीने से बेटे
को देता है। राजकुमार जी की आंखों से आंसू छलक पड़े। उन्होंने कांपते हुए हाथों से विवेक का सिर उठाया और अपने सीने से लगाकर बस एक ही बात कही। बेटा मैं नाराज नहीं हूं तुझसे। मैं तो बस तुझे देखने आया था। सोचा था तू खुश होगा। मुझे देखकर गले लगाएगा। लेकिन तेरा इंकार सुनकर मैं बिल्कुल खामोश हो गया था। विवेक अब फूट-फूट कर रो रहा था। और सुनील जो अब तक दीवार के सहारे खड़ा था। वो भी अपने आंसू रोक नहीं सका। उसने विवेक के पास जाकर गुस्से में कहा। भैया आप जानते हो बाबूजी उस दिन कितने टूट गए थे? रात भर जागते रहे। खाना नहीं खाया। और आप आप उन्हें
पहचानने से भी डर गए। विवेक ने सुनील का हाथ पकड़ कर कहा, मैंने अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी गलती की है भाई। लेकिन अब मैं उसे ठीक करूंगा। मैं दुनिया को खुद बताऊंगा कि मैं एक रिक्शा चालक का बेटा हूं। और इसी पहचान ने मुझे डॉक्टर बनाया है। राजकुमार जी ने अपने बेटे के आंसू पोंछते हुए कहा, बेटा तू जो करना चाहता है अब बिना डरे कर। लेकिन कभी भी इस बात से शर्म मत करना कि तू एक मजदूर का बेटा है क्योंकि मजदूरी तो ईमानदारी की सबसे बड़ी पूंजी है। विवेक ने अपने पिताजी के पैर छुए और कहा बाबूजी आज आप मेरे साथ चलिए मैं आज दुनिया के सामने खड़े होकर कहूंगा
कि यही है मेरे पिता। यही है मेरी कामयाबी की जड़ और यही है मेरी पहचान। विवेक ने अपने पिता श्री राजकुमार प्रसाद का हाथ थामा और उस दिन पहली बार उन्हें रिक्शा से नहीं अपनी कार में बिठाकर अस्पताल ले गया। राजकुमार जी रास्ते भर चुप थे। ना कुछ बोले ना ही कोई सवाल किया। लेकिन आंखों में जो नमी थी वो अब किसी अपमान की नहीं। बल्कि एक पिता को अपने बेटे की वापसी पर मिले सम्मान की आंच से पिघलती हुई आंसुओं की बूंदे थी। अस्पताल के मेन गेट पर जब गाड़ी रुकी तो गार्ड वही था जिसने कुछ दिन पहले उनसे थोड़ी बेरुखी से बात किया था। वो जैसे ही उन्हें पहचान पाया तो झट से
खड़ा हो गया और विवेक से बोला सर यह वही विवेक ने मुस्कुरा कर सिर हिलाया। हां यही है मेरे पिता और यही है मेरी असली पहचान। गार्ड हक्का बक्का रह गया और विनम्रता से झुककर राजकुमार जी को सलाम किया। अंदर जाते ही अस्पताल के गलियारे में फुसफुसाहट शुरू हो गई। वो डॉक्टर विवेक जिसने बताया था कि उसके पिता विदेश में बिजनेस करते हैं। आज खुद एक रिक्शा चालक को साथ लाया है और कह रहा है यह मेरे पापा है। विवेक ने किसी की तरफ देखा तक नहीं। वह सीधा उस वार्ड की तरफ गया जहां उसका मैनेजर और बाकी मेडिकल स्टाफ मीटिंग में थे। दरवाजा खोला और सबके सामने खड़े होकर बड़ी
विनम्रता और साफ आवाज में कहा सुनिए सभी लोग मैं आज आपसे कुछ छुपाना नहीं चाहता। जिस इंसान को मैं पिछले कई सालों से छुपाता रहा। आज उसे दुनिया के सामने लाना चाहता हूं। वह पीछे मुड़ा और फिर उनका हाथ पकड़ कर सभी के सामने खड़ा कर दिया। यह है मेरे पिता श्री राजकुमार प्रसाद जी जिन्होंने रिक्शा चलाकर मुझे इस काबिल बनाया। मेरी मां की मौत के बाद भी कभी हार नहीं मानी। हर दिन, हर रात, मेरी पढ़ाई, मेरी फीस, मेरी किताबों के लिए खून पसीना बहाया। मैंने इनसे नजरें चुराई थी। क्योंकि मैं डर गया था कि लोग क्या कहेंगे। विवेक की आवाज कांप रही थी। लेकिन आज मैं नहीं डरता
क्योंकि आज मैं जान चुका हूं कि इस देश का असली हीरो कोई करोड़पति नहीं बल्कि वो होता है जो खुद भूखा रहकर अपने बच्चों को सपनों की उड़ान देता है। कमरे में सन्नाटा था और फिर एक क्षण के बाद तालियों की गूंज ने हर दिल को भिगो दिया। डॉक्टर रिद्धिमा जो पहले विवेक की दोस्त थी और उसके झूठ को सच मानती थी। सबसे पहले खड़ी हुई और जाकर राजकुमार जी के चरणों में झुक गई। आप सच में महान है अंकल। आपने जो किया वो शब्दों से परे हैं। सभी डॉक्टर्स, नर्से, स्टाफ मेंबर्स एक-एक कर उनसे मिलते गए और उस दिन वो रिक्शा चालक जो तीन दिन पहले गेट से
लौटाया गया था। आज उसी अस्पताल के भीतर खड़ा था। सम्मान, आभार और गर्व की नजरों से नहाया हुआ। विवेक ने सबसे पहले अपने पिता के लिए एक कुर्सी मंगवाई और खुद जमीन पर बैठ गया। अब तक मैं आपकी परछाई से भी डरता था बाबूजी। अब मैं चाहता हूं कि आपकी छाया में ही जूं। इसके बाद विवेक ने अपने पिता को अस्पताल की कैंटीन में लेकर गया। जहां उन्हें पहली बार एक गर्म और साफ प्लेट में खाना परोसा गया। अगले कुछ हफ्तों में विवेक ने अपने पिता के लिए एक सुंदर सा घर बनवाया और छोटे भाई सुनील को शहर के सबसे अच्छे कॉलेज में दाखिला दिलवाया। अब जब भी अस्पताल में कोई मरीज
गरीब होता तो डॉक्टर विवेक अपनी फीस नहीं लेता। बस यही कहता कभी मेरे बाबूजी भी ऐसे ही किसी डॉक्टर के दरवाजे पर खड़े थे। आज मेरा फर्ज है कि किसी और का बाबूजी ना लौटे। दोस्तों बड़े बनने के लिए ऊंचा ओहदा नहीं बल्कि गहराई से किया गया त्याग और दिल से दिया गया सम्मान जरूरी होता है। अब सवाल आपसे अगर आप कभी ऐसे मोड़ पर आए जहां दुनिया की नजरों में इज्जत और अपनों का साथ दोनों में से एक चुनना हो तो आप क्या चुनेंगे? कमेंट करके बताइएगा क्योंकि कुछ जवाब इंसान को दोबारा इंसान बनाते हैं और अगर यह कहानी दिल को छू गई हो तो कृपया
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