शहर के बाहरी इलाके में बसा वह बुढ़िया का घर सदियों पुरानी मिट्टी की दीवारों से घिरा था। मीना देवी, जिनकी उम्र कोई पूछे तो वह हँसकर टाल देतीं, “जितनी दिखती हूँ उससे कहीं ज़्यादा जी ली है।” उनके पास कहने को एक पुराना टेपरिकॉर्डर, कुछ फटे-पुराने अख़बारों के कतरन और अनगिनत किस्से थे। यही किस्से थे जो कॉलेज के दो छात्रों को उनके दरवाज़े तक ले आए।

राहुल और विशाल, मीडिया स्टडीज के दोनों छात्र, “ओरल हिस्ट्री” प्रोजेक्ट के लिए एक बुज़ुर्ग का इंटरव्यू लेने आए थे। उनकी नज़र में मीना देवी एक ‘सब्जेक्ट’ थीं, एक ग्रेड का मौका।

“दादी, हम आपसे कुछ सवाल पूछना चाहते हैं,” राहुल ने बिना किसी आदर के शुरुआत की।

मीना देवी ने मुस्कुराते हुए उन्हें अंदर बुलाया। उनकी आँखों में एक चमक थी, जैसे कोई बहुत दिनों बाद मिलने वाला मेहमान आया हो।

लेकिन यह मुलाकात जल्द ही एक त्रासदी में बदल गई।

विशाल ने अपना फ़ोन निकालकर रिकॉर्डिंग शुरू की। राहुल के सवाल तीखे और अपमानजनक थे।

“आपके पति का देहांत कैसे हुआ? सुना है वह शराबी थे?”

“आपके बच्चे कहाँ हैं? क्यों नहीं देखते आपको?”

“इतनी गरीबी में रहती हैं, सरकारी पेंशन नहीं मिलती?”

हर सवाल एक खंजर की तरह था। मीना देवी की आँखें भीगने लगीं, लेकिन वह चुपचाप सब सहती रहीं। शायद उम्र ने उन्हें यह सहनशीलता दी थी। या शायद वह अकेलेपन में इतनी तरस गई थीं कि कोई बात करने आया, चाहे कैसे भी, तो वह उसे झेल लें।

फिर राहुल ने वह सवाल पूछा जो सबसे ज़्यादा चुभा।

“लोग कहते हैं आप जवानी में किसी के साथ भाग गई थीं, सच है? समाज ने आपको कभी माफ़ किया?”

उस पल मीना देवी का सिर शर्म से झुक गया। उनके होंठ काँपने लगे। उनकी आँखों से आँसू की एक बूँद गिरी और उनकी फटी हुई साड़ी पर टपक गई।

विशाल हँसा। “अरे, रो क्यों रही हैं दादी? यह तो बस इतिहास है ना!”

यह देखकर राहुल भी ठहाका लगाने लगा। दोनों ने बुढ़िया के दर्द को अपना मनोरंजन बना लिया।

तभी दरवाज़ा खुला।

बाहर खड़ा था अमन, पड़ोस का एक युवक, जो रोज़ मीना देवी के लिए दूध लाकर देता था। उसने सब कुछ सुन लिया था।

“क्या हल्ला है?” अमन ने दरवाज़े पर खड़े होकर पूछा, उसकी आँखों में आग थी।

राहुल और विशाल चौंके। “कुछ नहीं, बस प्रोजेक्ट के लिए इंटरव्यू ले रहे हैं,” विशाल ने घबराकर कहा।

“इंटरव्यू या तमाशा?” अमन ने गरजते हुए कहा। “इस उम्र की महिला को रुला रहे हो? तुम्हारी तालीम में यही सीखा है?”

मीना देवी ने हस्तक्षेप किया। “अरे अमन, छोड़ो, कोई बात नहीं…”

“नहीं दादी, आज नहीं छोड़ूँगा।” अमन ने दोनों लड़कों की तरफ कदम बढ़ाया। “तुम लोग समझते क्या हो अपने आप को? डिग्रियाँ ले ली, अंग्रेज़ी बोल ली, तो क्या इंसानियत बेच दी?”

राहुल घबरा गया। “हमें माफ़ कर दो, हम…”

“माफ़ी माँगने का हक़ तुम्हें नहीं है,” अमन ने काटा। “माफ़ी माँगनी है तो मीना दादी से माँगो।”

दोनों लड़के शर्म से लाल हो गए। विशाल का फ़ोन अब भी रिकॉर्ड कर रहा था, लेकिन अब वह रिकॉर्डिंग उनके खिलाफ सबूत बन रही थी।

तभी मीना देवी उठीं। उनकी आँखों में अब आँसू नहीं, एक अजीब शांति थी।

“बेटा,” उन्होंने अमन से कहा, “इन्हें जाने दो। इन्हें अभी पता नहीं है कि ज़िंदगी क्या होती है।”

अमन ने जिद की। “नहीं दादी, आज इन्हें सीखना होगा।”

उसने लड़कों से कहा, “तुम्हारा प्रोजेक्ट पूरा हुआ? नहीं न? तो अब मेरा एक सवाल है। क्या तुम जानते हो यह दादी कौन हैं?”

दोनों लड़के चुप रहे।

“यह मीना देवी 1971 के युद्ध में तीन घायल सैनिकों की जान बचाई थीं। इन्होंने आपातकाल के दौरान गरीब बच्चों को पढ़ाया। पिछले बीस साल से यह अपनी पेंशन का आधा हिस्सा गली के कुत्तों के लिए चारा खरीदने में लगा देती हैं। और तुम… तुम इस महिला से ‘इंटरव्यू’ लेने आए थे?”

हवा में सन्नाटा छा गया।

राहुल की आँखें भर आईं। विशाल का सिर शर्म से झुक गया।

मीना देवी ने धीरे से कहा, “अमन बेटा, बस करो।”

लेकिन अमन नहीं रुका। उसने बाहर जाकर गली के कुछ और लोगों को बुला लिया – रामू काका जो सब्ज़ी बेचते थे, शीतल दीदी जो आँगनवाड़ी में काम करती थीं, और कुछ बच्चे।

“ये लो,” अमन ने कहा, “असली इंटरव्यू लो। पूछो इनसे कि मीना दादी क्या हैं इस मोहल्ले के लिए।”

रामू काका ने कहा, “जब मेरी बीवी बीमार पड़ी थी, दादी रात-रात जागकर उसकी सेवा करती रहीं।”

शीतल दीदी बोलीं, “मेरी बेटी की पढ़ाई का खर्च दादी ने उठाया था। किसी को पता तक नहीं चला।”

एक बच्चा बोला, “दादी हमें रोज़ कहानी सुनाती हैं।”

हर गवाही के साथ राहुल और विशाल की शर्म更深 होती गई। वे जिसे एक ‘साधारण बुढ़िया’ समझकर आए थे, वह तो पूरे समाज की रीढ़ थीं।

आख़िरकार राहुल ने हिम्मत करके मीना देवी के पैर छू लिए। “माफ़ कर दीजिए दादी। हम नादान हैं। हमें कुछ नहीं आता।”

विशाल ने अपना फ़ोन निकाला और रिकॉर्डिंग डिलीट कर दी। “हमारा प्रोजेक्ट फेल हो जाएगा, लेकिन यह रिकॉर्डिंग हमें कभी नहीं रखनी चाहिए।”

मीना देवी ने दोनों को उठाया। उनकी आँखों में माफ़ी थी। “चलो बेटे, गलतियाँ सबसे होती हैं। सीखना ज़रूरी है।”

लेकिन अमन ने कहा, “नहीं दादी, सीखने के लिए कुछ करना होगा।” उसने लड़कों से कहा, “तुम्हारा प्रोजेक्ट पूरा करना है? तो करो। लेकिन असली कहानी पर – इस मोहल्ले की कहानी, दादी की कहानी, और आज जो हुआ उसकी कहानी।”

और ऐसा ही हुआ।

राहुल और विशाल अगले एक महीने तक रोज़ आए। उन्होंने मीना देवी का नहीं, बल्कि पूरे समुदाय का इंटरव्यू लिया। उन्होंने दादी के किस्से रिकॉर्ड किए, उनकी दयालुता के उदाहरण जमा किए। उनका प्रोजेक्ट “गरिमा की लौ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसने पूरे कॉलेज में सनसनी फैला दी।

लेकिन असली बदलाव उन दोनों के भीतर हुआ।

आज राहुल सामाजिक कार्यकर्ता है और विशाल एक संवेदनशील पत्रकार। वे अक्सर मीना देवी से मिलने आते हैं, लेकिन अब इंटरव्यू के लिए नहीं, बल्कि उनका आशीर्वाद लेने।

और मीना देवी?

वह अब भी उसी मिट्टी के घर में रहती हैं, उनकी आँखों में वही चमक है। लेकिन अब उनके पास दो और पोते हैं, जिन्होंने उम्र का सम्मान और इंसानियत की कीमत सीखी है।

उस दिन जो हुआ, वह सिर्फ़ एक बुज़ुर्ग महिला का अपमान नहीं था। वह मानवता के खोते हुए मूल्यों का आईना था। और जो हुआ उसके बाद, वह इंसानियत के जीवित होने की कहानी बन गई।

क्योंकि कभी-कभी सबक सबसे दर्दनाक तरीके से मिलते हैं, ताकि हम उन्हें कभी न भूलें।