दिल्ली के एम्स अस्पताल की खिड़की के पास बैठी अनन्या की आँखें सूजी हुई थीं। डॉक्टर ने कहा था कि तुरंत सर्जरी करनी पड़ेगी, जिसकी लागत लाखों में जाएगी। उसके पति का परिवार उत्तर प्रदेश के एक छोटे गाँव में रहता था, जहाँ खेती-बाड़ी से बस घर का गुज़ारा चलता था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इतने पैसे कहाँ से आएँगे। दो छोटे बच्चों को देखते ही उसका दिल टूट जाता था।

निराशा के उस पल में उसे अपने छोटे भाई रोहन की याद आई। बचपन से ही वह पढ़ाई में बहुत तेज़ था और अब मुंबई में एक बड़ी कंपनी में नौकरी करता था। शादी के बाद अनन्या ने उससे बहुत कम बात की थी — उसे डर था कि कहीं लोग न कहें कि वह अपने भाई पर निर्भर है।
लेकिन इस बार, उसके पास कोई और रास्ता नहीं था।

उसने काँपते हाथों से फोन मिलाया।
फोन के उस पार से रोहन की शांत आवाज़ आई —
“कितने पैसे चाहिए, दीदी?”

अनन्या की आवाज़ भर्रा गई —
“डॉक्टर ने कहा… कम से कम पैंतीस लाख रुपये। मुझे पता है ये बहुत बड़ी रकम है, लेकिन मेरे पास और कोई रास्ता नहीं।”

कुछ पल की चुप्पी रही, फिर रोहन ने कहा —
“ठीक है। लेकिन तुम्हें एक प्रॉमिसरी नोट लिखना होगा।”

अनन्या सन्न रह गई। उसे लगा, क्या भाई-बहन के बीच भी अब हिसाब-किताब होना चाहिए? लेकिन अपनी जान बचाने के लिए उसने बिना कुछ कहे सिर हिला दिया।

अगले दिन रोहन मुंबई से दिल्ली पहुँचा।
वह अस्पताल आया, बैग से पैसे निकाले और बोला —
“लिखो, दीदी। रकम और तारीख़ दोनों दर्ज करो।”

अनन्या के हाथ काँप रहे थे। हर शब्द जैसे उसके दिल में उतर रहा था। उसने कुछ नहीं कहा — बस कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए, धन्यवाद दिया और ऑपरेशन की तैयारी में लग गई।

ऑपरेशन सफल रहा, लेकिन शरीर बहुत कमजोर हो गया था। ठीक होने में महीनों लग गए।
हर बार जब वह जेब में रखे उस प्रॉमिसरी नोट को याद करती, दिल भारी हो जाता।
“क्या अब मेरा भाई इतना बदल गया है? क्या हमारे रिश्ते में अब सिर्फ हिसाब बाकी है?”

एक महीने बाद, जब वह ठीक होकर दिल्ली के लक्ष्मीनगर वाले अपने छोटे किराए के फ्लैट में लौटी, तो एक बरसाती शाम उसने वह कागज़ फिर से खोला।

धीरे-धीरे उसकी नज़र नीचे की ओर गई। अपनी ही लिखावट के नीचे कुछ और शब्द थे — साफ़, मजबूत और स्थिर अक्षरों में — रोहन की लिखावट में:

“अगर तुम पैसे लौटा सको, तो मैं खुशी से ले लूंगा।
अगर नहीं लौटा सको — तो इसे मेरी ओर से तोहफ़ा समझो।
बस एक शर्त है: अब अपनी सेहत का ख़याल रखना।
मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस तुम लंबी उम्र जियो, अपने बच्चों के साथ मुस्कुराओ।
और याद रखना, तुम्हारा छोटा भाई आज भी तुम्हें उतना ही चाहता है जितना पहले चाहता था।”

अनन्या के हाथ काँप उठे। आँसू कागज़ पर गिरने लगे।
उसे एहसास हुआ — वह प्रॉमिसरी नोट उसे बाँधने के लिए नहीं था, बल्कि उसकी इज़्ज़त बचाने के लिए था।
रोहन जानता था कि उसकी बहन कितनी आत्मसम्मानी है, और वह नहीं चाहता था कि कोई यह कहे कि “अनन्या अपने भाई से भीख माँग रही थी।”
वह चाहता था कि बहन उस पैसे को मदद नहीं, एक कर्ज़ समझे — ताकि उसका सिर ऊँचा रहे।

अनन्या ने वह कागज़ सीने से लगाकर रोते हुए कहा —
“रोहन… तुमने ऐसा क्यों किया?”

कई सौ किलोमीटर दूर, मुंबई में बैठे रोहन ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया —
“क्योंकि मैं जानता हूँ, दीदी, तुम अपने पति और बच्चों से कितना प्यार करती हो।
मैं बस चाहता था कि तुम्हें किसी पर निर्भर महसूस न हो।
कागज़ तुम्हें आत्मसम्मान देगा…
बाकी पैसे की तो कोई कीमत ही नहीं है।
मेरे लिए बस इतना काफी है कि तुम ज़िंदा हो — और अब भी मुझे ‘छोटा भाई’ कहती हो।”

अनन्या फूट-फूटकर रो पड़ी — लेकिन इस बार उसकी आँखों में दर्द नहीं, बल्कि सुकून था।
उसे समझ आया — कभी-कभी प्यार को मीठे शब्दों की नहीं, मौन बलिदान की ज़रूरत होती है।

उस दिन के बाद, जब भी उसकी नज़र उस कागज़ पर पड़ती, उसका दिल गर्व से भर जाता।
वह अब उसे एक कर्ज़ नहीं, बल्कि अपने रिश्ते की सबसे अनमोल निशानी मानती थी।
हर सुबह जब वह अपनी छोटी रसोई में चाय उबालती, तो उसे भाई की आवाज़ याद आती —
“अपना ख़याल रखना, दीदी।”

और उस चाय की महक में आज भी वो प्यार घुला रहता — जो शब्दों से नहीं, दिल से लिखा गया था।