पेंशन के पैसे के लिए आई थी बुजुर्ग महिला बैंक मैनेजर ने जो किया इंसानियत रो पड़ी दोस्तों लखनऊ के राज्य लोक बैंक में उस दिन भीड़ हमेशा की तरह बहुत थी पेंशन वाले दिन बैंक में जैसे पूरा शहर उमड़ आता था लेकिन उस भीड़ में एक औरत थी जो सुबह से लाइन में खड़ी थी साड़ी का पल्लू सिर पर हाथों में पुराना थैला और चेहरे पर थकान की गहरी लकीरें बैंक का टाइम खत्म होने ही वाला था। कैश काउंटर बंद होने लगे थे। कर्मचारियों ने कंप्यूटर बंद कर दिए थे। तभी वह औरत धीरे-धीरे आगे बढ़ी और बोली, बेटा मेरी पेंशन दे दो। मैं सुबह से खड़ी हूं।

काउंटर वाले ने बिना उसकी तरफ देखे कहा, मांझी टाइम खत्म हो गया है। अब सोमवार को आइए। दो दिन बैंक बंद रहेगा। औरत कुछ नहीं बोली। बस वही पास की बेंच पर बैठ गई। उसकी आंखों से आंसू टपक पड़े। वो बुदबुदा रही थी। घर में खाने को कुछ नहीं। दवा भी नहीं है। दो दिन कैसे गुजारूंगी? यह सब देखकर बैंक मैनेजर आरव सिन्हा का दिल कांप गया। वो अपने केबिन से बाहर आया और पूछा। क्या हुआ मांझी? आप क्यों रो रही है? क्लर्क बोला सर टाइम खत्म हो गया है। अब सिस्टम बंद हो गया है पर यह कह रही है कि उन्हें आज ही पेंशन चाहिए। आरव ने झुक कर पूछा

क्या आप कल नहीं आ सकती? वो बोली बेटा अगर कल भी आती तो कुछ फर्क नहीं पड़ता। पर अब दो दिन छुट्टी है। मैं भूखी हूं। मेरे पास एक रुपया भी नहीं है। उनकी थरथराती आवाज सुनकर आरव कुछ देर खामोश रहा। उसे वह आवाज अजीब सी जानी पहचानी लगी। उसने गौर से उनके चेहरे की ओर देखा। उम्र की मार से चेहरा बदल चुका था। मगर आंखों की गहराई अब भी वैसी ही थी। आरव के अंदर जैसे कोई लहर सी उठी। उसने धीरे से पूछा, मांझी, आपका नाम क्या है? वो बोली, “मेरा नाम सरस्वती देवी है बेटा।” पहले कानपुर में पढ़ाया करती थी। अब बुजुर्ग हो गई हूं। बस पेंशन

से ही गुजारा चलता है। यह सुनते ही आरव की आंखें फैल गई। उसकी सांसे थम गई। वह नाम उसके दिल में गूंज गया। यही तो वह नाम था जिसने उसकी जिंदगी बदली थी। सरस्वती देवी वही टीचर जिनकी वजह से आरव आज इस कुर्सी पर बैठा था। वही जिनके शब्द उसे हमेशा याद थे। मेहनत कर बेटा। एक दिन तू अफसर बनेगा। आरव की आंखों में नमी आ गई। उसने कांपते हाथों से अपनी जेब से बटुआ निकाला और ₹5,000 निकालकर उनकी हथेली पर रख दिए। मांझी आप यह रख लीजिए। बैंक खुलेगा तो मैं खुद आपकी पेंशन से काट दूंगा। वो हैरान होकर बोली, बेटा तुम कौन हो जो मेरी इतनी मदद कर रहे हो? आरव के हंठ कांप उठे। उसने

धीरे से कहा, मांझी मैं वही आरव हूं। आपका स्टूडेंट जिसे आपने कभी मुफ्त में पढ़ाया था। सरस्वती देवी की आंखें फटी रह गई। वह जैसे शब्द खोज रही थी। फिर उनके होठों से निकला आरव तू आरव झुक गया। उनके पैरों को छुआ और बोला मां आज जो कुछ भी हूं आपकी वजह से हूं। अगर आप ना होती तो मैं आज भी सड़कों पर भटक रहा होता। पूरा बैंक सन्न हो गया। वहां मौजूद लोग यह दृश्य देखकर रुक गए थे। एक बैंक मैनेजर एक बुजुर्ग औरत के पैरों में सिर झुकाए खड़ा था। आरव ने कहा मां अब आप मेरे साथ चलिए मैं आपको घर छोड़ देता हूं। वो बोली नहीं बेटा मैं खुद

चली जाऊंगी। तू क्यों परेशान होगा? आरव ने विनम्रता से कहा आपने मुझे इंसान बनाया था। अब मेरी बारी है। बाहर हल्की बारिश शुरू हो चुकी थी। आरव ने गाड़ी बुलवाई और उन्हें सहारा देकर बैठाया। रास्ते में वह चुपचाप बैठी रही। कभी शीशे से बाहर देखती कभी आसमान की ओर। आरव ने महसूस किया कि वक्त ने उन्हें कितना बदल दिया था। वह औरत जो कभी बच्चों को उम्मीद सिखाती थी। आज खुद बेबसी की मिसाल बन गई थी। आरव के मन में सैकड़ों सवाल थे। आखिर क्या हुआ उनके साथ? वह कानपुर छोड़कर लखनऊ कैसे आ गई? कहां गई उनकी जिंदगी की वह इज्जत? लेकिन उसने कुछ नहीं पूछा। बस मन ही मन ठान

लिया। अब वो उन्हें अकेला नहीं छोड़ेगा। जैसे ही गाड़ी रुकी, सरस्वती देवी ने झिझकते हुए कहा, बेटा, बस यहीं रोक दो। मेरा घर यहीं है। आरव ने देखा सड़क के किनारे टूटी झुग्गियां, कीचड़ से भरी गलियां और बच्चों की आवाजा आई। उसका दिल डूब गया। क्या वाकई उनकी टीचर अब यहां रहती है? वो कुछ कह नहीं सका। बस गाड़ी से उतरा और बोला, “मां आप थोड़ी देर रुको। मैं अंदर देख कर आता हूं। झुग्गी के अंदर ना दीवारें सही थी ना छत। एक कोने में टूटी चारपाई। एक पतीला और मिट्टी का चूल्हा रखा था। यह देखकर आरव की आंखें भर आई। वह बाहर आया। उनके पास जाकर बोला, मां

अब आप यहीं नहीं रहेंगी। चलिए मेरे साथ मेरे घर चलिए। वो बोली, बेटा, मैं तेरे सिर पर बोझ नहीं बनना चाहती। आरव ने नम आंखों से कहा, “आपने मुझे सिर उठाकर चलना सिखाया था।” बोझ नहीं बरकत बनकर चलिए। सरस्वती देवी कुछ नहीं बोली। उनके होठ कांप रहे थे। आंखों से आंसू गिर रहे थे। वह धीरे से बोली, चल बेटा। अब शायद ऊपर वाले ने हमें दोबारा मिलाने का वक्त भेजा है। आरव ने उनके कांपते हाथ थामे और कहा, मां, अब आप कभी अकेली नहीं होंगी। गाड़ी आगे बढ़ी। बारिश की बूंदे शीशे पर गिरती रही। और आरव की आंखों से भी वही बूंदे टपकती रही। फर्क बस इतना था कि वह बूंदे

आसमान से नहीं दिल से गिर रही थी। आरव की कार अब धीरे-धीरे शहर के रास्तों से गुजर रही थी। बाहर बारिश थम चुकी थी। मगर अंदर दोनों की आंखों में पुरानी यादों का तूफान उठ रहा था। सरस्वती देवी खिड़की के बाहर देख रही थी। लेकिन उनकी आंखों में बरसों पहले का बीता हुआ वक्त घूम रहा था। आरव की निगाहें भी स्टीयरिंग पर कम उनके चेहरे पर ज्यादा थी। वह अब भी सोच रहा था आखिर उस महान औरत की जिंदगी इस हाल तक कैसे पहुंच गई। रास्ते में चलते हुए उसके दिमाग में एक-एक कर पुरानी बातें खुलने लगी। वो दिन जब उसके पिता सब कुछ खोकर घर आए थे। जब

उसके घर का दरवाजा बंद हो गया था। और जब उसकी मां ने भूख छिपाने के लिए बस पानी पीकर रात गुजारी थी। वह वक्त था जब आरव अभी सिर्फ 15 साल का था। उसके पिता ने अपनी सारी कमाई अपने छोटे भाई को भरोसे में दी थी। जिसने घर के कागज चुराकर बेच डाले। उस धोखे ने आरव के पिता को तोड़ दिया था। कुछ ही महीनों में उन्होंने अपनी जान गवा दी। घर छीन गया। पिता चले गए और मां बीमार पड़ गई। वह दिन आरव के जीवन का सबसे अंधेरा दौर था। ना पैसा था, ना सहारा, ना उम्मीद। उसी वक्त उसकी जिंदगी में एक रोशनी आई। रेखा मैडम यानी अब की सरस्वती देवी। वो स्कूल की टीचर थी। सख्त

भी, दयालु भी। बाकी टीचरों की तरह उन्होंने आरव की गरीबी देखकर मुंह नहीं मोड़ा। बल्कि उसी दिन उसे अपने पास बुलाया और कहा बेटा स्कूल छोड़ना मत। जब इंसान के पास कुछ नहीं बचता तो ज्ञान ही उसका सहारा बनता है। आरव ने कहा था मैडम मैं पढ़ नहीं सकता। घर में खाने को नहीं है। फीस कैसे दूं? वो मुस्कुराई थी। तेरे जैसी मेहनती आंखों में फीस नहीं देखी जाती। बेटा कल से स्कूल आना। बाकी सब मैं संभाल लूंगी। उनकी उस एक बात ने जैसे आरव को नया जीवन दे दिया। वह रोज सुबह स्कूल आता कैंटीन में काम करता और जब बाकी बच्चे खेलते वो रेखा मैडम की क्लास में बैठकर पढ़ता। मैडम खुद

अपनी तनख्वाह से उसकी किताबें खरीदती। लंच में बचा खाना उसे देती। और जब वह थक कर हार जाता तो कहती थोड़ा और सह ले बेटा जो तुझे तोड़ना चाहता है वही तुझे बड़ा बनाएगा। उनकी बातें दवा की तरह असर करती थी। आरव दिनरा मेहनत करने लगा। स्कूल में कैंटीन का झाड़ू लगाता, चाय परोसता और फिर क्लास में जाकर चुपचाप बैठता। कभी कोई उसकी हंसी उड़ाता तो रेखा मैडम सामने आकर कहती, यह लड़का एक दिन तुम सबसे आगे निकलेगा। उनका विश्वास आरव के लिए वरदान था। एक दिन जब आरव के पास फीस भरने के लिए पैसे नहीं थे तो उन्होंने खुद अपनी साड़ी गिरवी रख दी थी। किसी को नहीं बताया। बस

उसे बुलाकर कहा। अब चिंता मत कर। पढ़ाई तेरी चलती रहेगी। उस दिन आरव ने अपनी आंखों में कसम खा ली थी। अब कभी पीछे नहीं देखूंगा। धीरे-धीरे उसने इंटर पास किया। फिर बीए और रेखा मैडम की मदद से यूनिवर्सिटी में एडमिशन भी मिला। वह अक्सर कहती आरव मैं तेरे लिए नहीं तेरे मां-बाप के सपनों के लिए मेहनत कर रही हूं। अगर तू जीत गया तो मुझे लगेगा मेरे जीवन की तपस्या सफल हुई। लेकिन किस्मत ने एक दिन फिर मोड़ लिया। जब आरव एमए कर रहा था तो एक सुबह उसे खबर मिली। रेखा मैडम ने स्कूल छोड़ दिया है। ना कोई विदाई ना कोई वजह। वो बस गायब हो गई थी। घर जाकर देखा तो

ताला लटक रहा था। पड़ोसियों ने कहा बेटा वह तो कहीं चली गई शायद किसी और शहर। आरव उस दिन टूट गया था। जिस औरत ने उसे संभाला था वही बिना बताए चली गई थी। उसकी आंखों में सवाल थे। क्या मैं उनके लिए बोझ बन गया था? या शायद वह थक गई थी? लेकिन जवाब उसे कभी नहीं मिला। समय बीतता गया। आरव ने खुद को संभाला। उसने सोचा अगर वह मुझ पर भरोसा करती थी तो मुझे उनकी उम्मीद पर खरा उतरना है। वो दिनरा काम करता रहा और धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाने लगी। सरकारी परीक्षा पास की। बैंक में नौकरी मिली और कुछ ही सालों में प्रमोशन पर प्रमोशन मिलता गया। आज जब वह अपनी टीचर को

इस हालत में देख रहा था। झुर्रियों में लिपटी पेंशन के लिए तरसती हुई भूखी बैठी तो उसे लगा जिंदगी का पूरा चक्र उसके सामने घूम गया है। कार अब उसके घर के बाहर रुक चुकी थी। आरव ने गाड़ी का दरवाजा खोला और बोला मां अब आप यहीं रहेंगी। यह घर अब आपका है। सरस्वती देवी ने उसकी तरफ देखा। आंखों में वही ममता थी जो बरसों पहले थी। वह बोली बेटा अब तू मुझे मां कहता है तो मुझे लगता है मेरी तपस्या पूरी हो गई। आरव कुछ बोल नहीं पाया। बस उनके पैर छू लिए। उनके चेहरे पर पहली बार मुस्कान थी। वो मुस्कान जो बरसों पहले उसकी कॉपी पर गुड लिखते वक्त होती

थी। उस दिन आरव को एहसास हुआ। गुरु और मां में फर्क सिर्फ जन्म का होता है। ममता दोनों में बराबर होती है। आरव ने सरस्वती देवी को अपने घर में सबसे अच्छे कमरे में ठहराया। उन्होंने कमरे में जाते ही दीवारों को छुआ। जैसे बरसों बाद किसी सुकून भरे ठिकाने को महसूस कर रही हो। उनके चेहरे पर शांति थी। पर आंखों में अब भी वह सन्नाटा था। जो अकेलेपन के लंबे सफर से आता है। आरव ने नौकरानी को बुलाकर कहा, अब से मां के सारे काम तुम देखना। खाना, दवा सब। वो मुस्कुराई। बेटा मुझे मां क्यों कह रहा है? आरव ने झुक कर कहा, “क्योंकि मां वो नहीं होती जिसने जन्म

दिया।” मां वो होती है जिसने गिरते को थाम लिया। उनकी आंखें भर आई। वह बोली अगर तू मुझे मां मानता है तो अब मैं तेरी मां ही हूं। रात को आरव ने उनके लिए गर्म खाना बनवाया। दाल, चावल, रोटी और थोड़ा सा हलवा। उन्होंने पहली बार इतने बरसों बाद तृप्ति से खाना खाया। हर निवाले के साथ उनकी आंखों से आंसू बहते रहे। वह बोली बेटा जब तू स्कूल में मेरे पास खाना मांगने आता था तो मुझे लगता था काश मैं तुझे कुछ अच्छा खिला पाती। आज तू मुझे खिला रहा है। भगवान ने तेरी मेहनत का फल दे दिया। आरव बस मुस्कुराया और बोला अब सब कुछ आपका है। मां अगले कुछ हफ्तों में

सरस्वती देवी की तबीयत सुधरने लगी। उनका चेहरा खिल उठा था। अब वह हर सुबह पूजा करती। घर की बालकनी में बैठकर अखबार पढ़ती और चाय पीते हुए आरव का इंतजार करती। जब आरव ऑफिस से लौटता तो वह हमेशा दरवाजे पर खड़ी मिलती। एक दिन उन्होंने कहा बेटा तू बहुत बड़ा आदमी बन गया पर अब एक कमी है। तेरे घर में हंसी की आवाज नहीं आती। आरव हंसकर बोला वो भी आ जाएगी मां। बस आप दुआ करो। वो बोली दुआ नहीं। अब तो मैं तेरी शादी की बात सोच रही हूं। अब तू अकेला नहीं रहेगा। आरव ने हल्के अंदाज में कहा, अगर आप ही ढूंढ दो तो मुझे खुशी होगी। वो मुस्कुराई। मुझे लगता है ऊपर वाला हमें

इसलिए मिलाया है ताकि मैं तुझे अकेला ना देखूं। धीरे-धीरे घर में उनकी मौजूदगी से एक नया जीवन लौट आया। घर में वह पुरानी खालीपन वाली गूंज अब नहीं थी। कभी वह रसोई में जाकर आरव के लिए खीर बनाती। कभी अलमारी में उसके कपड़े सहजती। एक शाम आरव ऑफिस से लौटते हुए एक गुलदस्ता लेकर आया और बोला, मां आज मेरे बैंक में सभी ने आपकी बात की। सब ने कहा कि आप कितनी किस्मत वाली है कि आपका बेटा इतना नेक दिल है। वो हंस पड़ी। नहीं बेटा मैं नहीं। तू किस्मत वाला है कि तुझे अपना अतीत पहचानने की समझ थी। फिर उन्होंने गंभीर आवाज में कहा बेटा जब मैं

नौकरी छोड़कर कानपुर गई थी तब सोच भी नहीं सकती थी कि एक दिन तेरा नाम अखबार में पढूंगी। तूने मेरी हर मेहनत का फल लौटा दिया। आरव ने उनका हाथ थाम लिया और बोला मां मैंने कुछ नहीं लौटाया। आपने जो बीज बोया था वो आज पेड़ बन गया है। उनकी आंखों में चमक थी। वह बोली अब बस एक सपना बाकी है तेरी शादी देखना फिर मैं चैन से आंखें मूंद लूंगी। आरव ने कहा आप जो कहेंगी वही करूंगा मां। उस रात जब आरव अपने कमरे में गया तो खिड़की से आती हल्की हवा में उसे एक सुकून महसूस हुआ। अब उसे समझ आ गया था कि घर सिर्फ दीवारों से नहीं बनता बल्कि उस आशीर्वाद से बनता है जो किसी मां की

आंखों से टपकता है। सरस्वती देवी अब पहले जैसी नहीं रही। अब वह कमजोर बुजुर्ग नहीं बल्कि गर्व से भरी मां बन चुकी थी। वह हर रोज मंदिर जाकर आरव की तरक्की के लिए दिया जलाती और कहती हे भगवान अगर अगले जन्म में मुझे मां बनने का वरदान मिले तो मैं फिर इसी बेटे की मां बनूं। आरव सुनकर मुस्कुराता और सोचता अगर हर बेटा अपनी गुरु को मां समझ ले तो शायद इस दुनिया में कोई बुजुर्ग भूखा ना सोए। दिन बीतते गए और आरव के घर में अब हर सुबह नई ऊर्जा लेकर आती थी। सरस्वती देवी की हंसी, उनकी दुआएं और उनका स्नेह घर को ऐसा बना चुके थे जैसे

किसी मां का आंगन हो। हर शाम आरव जब ऑफिस से लौटता तो दरवाजे पर सरस्वती देवी इंतजार करती मिलती। हाथ में थाली जिसमें दीपक जल रहा होता। वो कहती बेटा भगवान का नाम लेकर अंदर आओ। दिन भर की थकान उतर जाएगी। आरव मुस्कुराता और झुककर उनके पैर छूता। घर में अब सुकून था, शांति थी और सबसे बढ़कर एक मां का आशीर्वाद था। एक दिन उन्होंने आरव को बुलाकर कहा, बेटा अब तेरी जिंदगी में खुशियां पूरी होनी चाहिए। मैं चाहती हूं कि तू शादी कर ले। मैंने तेरे लिए एक लड़की देखी है। सीधी सादी संस्कारी और तेरे जैसी सच्ची। आरव ने सिर झुकाकर कहा मां आप जिसे पसंद करेंगी वही मेरी

किस्मत बनेगी। उनकी आंखों में चमक थी। अब मुझे यकीन है कि तेरे जीवन की अधूरी कहानी पूरी हो जाएगी। कुछ महीनों बाद आरव की शादी तय हो गई। शादी के दिन सरस्वती देवी सबसे ज्यादा खुश थी। उन्होंने खुद अपने हाथों से बहू के माथे पर तिलक लगाया और बोली बहू अब मेरा बेटा तेरा है। तू इसका ध्यान रखना। यही मेरी आखिरी इच्छा है। वो दिन पूरे घर के लिए सबसे बड़ा पर्व था। शादी के बाद घर में नए रंग भर गए थे। बहू अनन्या बेहद समझदार और विनम्र थी। उसने सास को मां की तरह अपनाया। हर सुबह वो उनके पैर छूती और दवा देती। सरस्वती देवी हर बार यही कहती भगवान करे हर बेटे को ऐसी

बहू मिले लेकिन वक्त कभी एक जैसा नहीं रहता। एक शाम सरस्वती देवी पूजा करते हुए गिर गई। आरव और अनन्या भागते हुए पहुंचे। डॉक्टर को बुलाया गया। जांच के बाद डॉक्टर ने गंभीर आवाज में कहा। इनकी उम्र ज्यादा है। दिल बहुत कमजोर है। अब ज्यादा वक्त नहीं है। आरव का दिल जैसे टूट गया। वो उनके पास बैठा। उनके हाथ थामे बोला मां आप ठीक हो जाएंगी मैं आपको किसी अच्छे अस्पताल ले जाऊंगा वो मुस्कुराई नहीं बेटा अब जाने का वक्त आ गया है मैं बहुत खुश हूं कि तूने मुझे मां कहा वरना मैं तो जिंदगी भर अकेली रह जाती आरव की आंखों में आंसू थे वो बोली बेटा याद रख जिंदगी में

पैसे कमाने से बड़ा काम है इंसानियत को जिंदा रखना तू जहां भी रहेगा। मेरी दुआ तेरे साथ रहेगी। वो ठंडी सांसे ले रही थी। लेकिन चेहरे पर सुकून था। मां आप ही मुझे छोड़कर नहीं जा सकती। आरव की आवाज कांप रही थी। उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ कहा, मैं तुझे छोड़कर नहीं जा रही। तेरे दिल में रहूंगी बेटा। जैसे तू मेरे दिल में सालों से रहा। इतना कहकर उनकी आंखें धीरे-धीरे बंद हो गई। आरव का सिर उनके सीने पर था और कमरे में बस सन्नाटा रह गया। अगले दिन पूरे बैंक स्टाफ ने जब सुना कि आरव की मां नहीं रही तो सब श्रद्धांजलि देने आए। किसी ने कहा सर हमें लगा यह आपकी

असली मां है। आरव ने आंखों से आंसू पोंछते हुए कहा असल मां वो नहीं होती जिसने जन्म दिया। असल मां वो होती है जिसने इंसानियत सिखाई। उनकी अंतिम यात्रा में आरव ने खुद कंधा दिया। उसने वही सफेद शॉल ओढ़ी थी जो कभी रेखा मैडम ने उसे इंटर परीक्षा के वक्त दी थी। जब उसने कहा था बेटा ठंड है इसे रख ले। आज वही शॉल उसकी आंखों से बहते आंसुओं को सोख रही थी। जब चिता जल रही थी। आरव ने आसमान की तरफ देखा और धीरे से कहा मां आपने जो बीज मेरे अंदर बोया था वह अब इंसानियत का पेड़ बन चुका है। मैं वादा करता हूं अब कोई सरस्वती देवी इस शहर में

भूखी नहीं रहेगी। कुछ महीनों बाद आरव ने बैंक की मंजूरी से एक फंड शुरू किया। सरस्वती स्मृति पेंशन सहायता योजना जिसके तहत हर महीने बुजुर्ग औरतों को आर्थिक मदद दी जाने लगी। वह कहता यह मेरी मां का सपना था कि कोई भी बुजुर्ग औरत किसी बैंक लाइन में बेबस होकर ना रोए। लोग कहते थे आरव सर का दिल बहुत बड़ा है। लेकिन जो लोग नहीं जानते थे वो यह था कि आरव के दिल में एक औरत का साया हमेशा जिंदा था। वो टीचर वो मां जिसने इंसानियत की असली परिभाषा लिखी थी। हर साल उनकी पुण्यतिथि पर आरव अपने बैंक में छोटा सा दीप जलाता और उनके पसंदीदा शब्द दोहराता। मेहनत कभी बेकार

नहीं जाती बेटा। बस दिल सच्चा रखना। उस दिन जब वो दीप जलाता तो उसे लगता जैसे हल्की हवा में कहीं सरस्वती देवी की आवाज गूंजती है। बेटा तूने मेरा फर्ज पूरा किया। अब मैं चैन से हूं। आरव की आंखों से फिर वही पुराने दिन बहने लगते। लेकिन इस बार उन आंसुओं में दर्द नहीं सिर्फ गर्व होता था। कहानी वहीं खत्म होती है। जहां इंसानियत की शुरुआत होती है। जब एक बेटा अपनी गुरु में मां को देख लेता है और एक मां अपने शिष्य में अपना पूरा संसार। दोस्तों, इस कहानी की सबसे बड़ी सीख यही है। मां, पिता या गुरु कभी पुराने नहीं होते। बस हम ही वक्त के साथ बदल जाते हैं।

अगर आज आप अपने जीवन में सफल हो तो जरा पीछे मुड़कर देखिए। शायद किसी सरस्वती देवी ने आपको भी कभी गिरने से बचाया हो। अगर आपकी जिंदगी में भी कोई ऐसा इंसान है जिसने बिना स्वार्थ आपके लिए कुछ किया हो। क्या आपने उसे कभी धन्यवाद कहा है? कमेंट में बताइए। क्या आपने भी कभी किसी ऐसे बुजुर्ग की मदद की है जिसने आपको मां या पिता जैसा प्यार दिया हो? और अगर इस कहानी ने आपका दिल छू लिया हो तो लाइक कीजिए, शेयर कीजिए और चैनल स्टोरी बाय बीके को सब्सक्राइब कीजिए ताकि इंसानियत की यह कहानियां हर दिल तक पहुंच सके। मिलते हैं अगले वीडियो में। तब तक इंसानियत निभाइए।

नेकी फैलाइए और माता-पिता एवं गुरुओं का कद्र कीजिए।