शुक्रवार की रात का रेस्तरां हलचल भरा था, जब दोनों बच्चे उसकी मेज के पास रुके। रीटा मिश्रा शुरुआत में उन्हें ध्यान से नहीं देख रही थी; वह अपने फोन पर ईमेल चेक कर रही थी, चारों तरफ़ बर्तनों और चश्मों की खनक की आवाज़ें बस आधी सुन रही थी। तभी उसने एक छोटी, सावधान आवाज़ सुनी।
“मैडम, क्या आप हमें बचा हुआ खाना दे सकती हैं?”
वह नजर उठाने ही वाली थी, शिष्टाचार से मना करने के लिए, और उसके चारों ओर की दुनिया ठहर गई।
दो दुबले-पतले बच्चे खड़े थे, शायद दस या ग्यारह साल के, बड़े और पुराने कपड़े पहने हुए, जूतों के सोल घिसे हुए। उनके बाल बिखरे हुए थे, चेहरे शहर की धूल से धब्बेदार थे। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि जैसे ही उसने उन्हें देखा, उसका दिल ठहर सा गया।
उनकी आँखें अर्जुन की थीं। उनकी ठोड़ी राघव जैसी। वही छोटी तिल, जिसे वह हर रात गुडनाइट बोलते हुए चूमती थी।
एक पल के लिए, रीटा की सांस अटक गई। छह साल हो गए थे जब उसके बच्चे मुंबई के एक भीड़-भाड़ वाले पार्क से गायब हो गए थे: छह साल पुलिस रिपोर्ट्स, निजी जासूस, राष्ट्रीय खबरें और उसके जीवन के हर कोने में बैठा दर्द। उसने उस दिन को बार-बार अपने मन में दोहराया। और अब, दो बच्चे जो उसके बच्चों जैसे दिख रहे थे, उसके सामने थे और बचा हुआ खाना मांग रहे थे।
कांटा उसके हाथ से फिसलकर जोर से प्लेट पर गिर गया।
“क-क्या कहा?” उसने फुसफुसाया।
ऊंचा बच्चा कांटे की तेज़ आवाज़ से झटका खाकर सीधा हो गया। “माफ़ कीजिए, मैडम,” उसने जल्दी से कहा, उसकी आवाज़ में अभ्यास की गई डर थी। “हम भूखे हैं। हमें पैसे नहीं चाहिए। बस थोड़ा खाना जो बचा हो।”
रीटा घूरती रही, उसका दिमाग और दिल जंग कर रहे थे। यह सिर्फ़ संयोग हो सकता है। बच्चे पूरी तरह उसके बच्चों जैसे दिखते थे। तिल वही थे। आँखें वही थीं। डीएनए दिलों के टूटने की परवाह नहीं करता।
लेकिन फिर छोटे बच्चे ने कदम बढ़ाया, और उसने देखा: दाहिने भौंह के ऊपर एक पतली सफ़ेद चोट। अर्जुन की भी वही चोट थी, जब वह पांच साल का था और घर के सामने साइकिल से गिर गया था।
उसकी कुर्सी चर्राई, और वह उठ खड़ी हुई। “आपका नाम क्या है?” उसने हिचकिचाते हुए पूछा।
बच्चों ने जल्दी से एक-दूसरे की तरफ देखा।
“मैं लव हूं,” ऊंचा बच्चा बोला। “और यह है एशु।”
रीटा ने निगल लिया। उनके नाम अर्जुन और राघव थे।
इतने मिलते-जुलते। इतने असंभव रूप से मिलते-जुलते।
फिर भी, उसकी अंतरात्मा चिल्ला रही थी कि यह कोई संयोग नहीं था।
रीटा का दिमाग दौड़ रहा था। नाम बदल सकते थे, लेकिन चोटें नहीं। उसने अपने हाथों को शांत किया और धीरे से कहा:
“लव… एशु,” उसने धीरे-धीरे कहा। “बैठो, ठीक है? जो चाहो मांग सकते हो, सिर्फ़ बचा हुआ खाना नहीं।”
वे झिझके, उनकी आँखें चारों ओर देख रही थीं जैसे बच्चे जिन्हें दयालुता पर भरोसा करना नहीं आता। अंत में, भूख जीत गई। वे मेज के पास बैठ गए, कंधे तने हुए, किसी भी पल भागने के लिए तैयार।
रीटा ने कांपते हाथों से वेटर को इशारा किया। “दो बर्गर, फ्रेंच फ्राइज और दो चॉकलेट मिल्कशेक। जल्दी लाओ।”
खाने का इंतजार करते हुए उसने उन्हें गौर से देखा। करीब से देखो तो मिलान और भी चौंकाने वाला था। एशु की उंगलियां मेज पर टाप-टाप करने का तरीका… अर्जुन हमेशा ऐसा करता था जब वह नर्वस होता था। लव का दरवाजों की ओर लगातार निगाह रखना, जैसे राघव करता था।
“आपके माता-पिता कहाँ हैं?” रीटा ने धीरे से पूछा।
लव का जबड़ा कड़ा हो गया। “हमारे पास नहीं हैं।”
एशु ने आँखें झपकाईं और फिर हाथों की ओर देखा। “हमारे पास… पहले थे,” उसने फुसफुसाया।
रीटा का सीना दुखा। “याद है?”
“थोड़ा,” एशु ने कहा। “एक घर। एक कुत्ता। आँगन में बड़ा पेड़।” उसने आँखें तंग कीं, जैसे धुंध के पार देखने की कोशिश कर रहा हो। “पार्क में स्लाइड थी। और नीली जूते… जो मुझे बहुत पसंद थी।”
रीटा के घुटने लगभग टिक गए। अर्जुन की पसंदीदा नीली जूते। पार्क। कुत्ता, मैक्स। वो सारी बातें जो उसने कभी सार्वजनिक नहीं की थीं।
उसने फोन निकाला और अपने भाई, दिनेश को संदेश भेजा, जो पंद्रह मिनट की दूरी पर रहता था और खोज के हर साल उसके साथ था।
मैं हार्बर हाउस में हूँ। दो बेघर बच्चे। बिल्कुल अर्जुन और राघव जैसे। चोट, तिल, सब कुछ। मुझे अच्छा नहीं लग रहा। आओ। और इंस्पेक्टर शर्मा भी लेकर आओ।
इंस्पेक्टर अनिता शर्मा इस मामले की मुख्य जासूस रही थीं। वह परिवार जैसी बन गई थीं। रीटा जानती थी कि अगर कोई उसे संभाल सकता है और कोई गलती होने से रोक सकता है, तो वह अनिता थीं।
खाना आया। बच्चों ने बर्गर ऐसे खाए जैसे कई दिन से भूखे हों। रीटा उन्हें देख रही थी, अपनी बाहों में उन्हें खींचने और फिर से गलत होने के डर के बीच झूल रही थी।
लेकिन यह अलग लग रहा था। चोट। तिल। वही छोटा गड्ढा जब एशु—अर्जुन?—हंसता।
“…आपका सरनेम याद है?” रीटा ने पूछा।
लव ने शरीर तना। “क्यों?” उसकी आँखें तंग हो गईं। “क्या आप पुलिस हैं?”
“नहीं,” उसने जल्दी कहा, हाथ ऊपर करके। “मैं बस… आपकी चिंता कर रही हूँ। आप बच्चे हैं। बाहर अकेले नहीं रहना चाहिए।”
एशु ने एक फ्रेंच फ्राइज आधा मुंह में डालते हुए निगल लिया। “हम किसी… के साथ थे। काफी समय तक। फिर वो चले गए। कहा कि हम बहुत महंगे हो गए।” उसकी मुस्कान थोड़ी टेढ़ी और दर्दभरी थी। “शायद अब हम अकेले हैं।”
रीटा का खून जम गया। अपहरण। शोषण। एक आदमी जिसने उन्हें “छोड़” दिया।
फोन हिला। दिनेश का संदेश: अभी पार्किंग में। अनिता मेरे साथ। बच्चों को मत जाने दो।
रीटा ने गहरी सांस ली, अपने हाथों की कंपकंपाहट छुपाते हुए।
“बच्चों,” उसने धीरे कहा, “अगर कोई… बहुत लंबे समय से… आपको ढूँढ रहा होता, तो कैसा लगेगा?”
कुछ ही मिनटों में, दिनेश और अनिता रेस्तरां में आए। रीटा का दिल तेजी से धड़क रहा था। बच्चों ने अनिता की पुलिस बैज देख कर instinctively tense हो गए।
“ठीक है,” रीटा ने तुरंत कहा। “यह मेरी दोस्त अनिता हैं। वह बच्चों की मदद करती हैं। आपको चोट नहीं पहुँचाएंगी।”
अनिता धीरे-धीरे पास आई, बच्चों के चेहरे पढ़ते हुए। झुककर उनके स्तर पर आई।
“हैलो,” उसने धीरे कहा। “क्या मैं बैठ सकती हूँ?”
लव की नजरें दरवाजे पर थीं। एशु ने उसकी आस्तीन पकड़ी, चुपचाप भरोसा जताते हुए। अंततः लव ने सिर हिलाया।
अनिता बैठी और रीटा ने धीरे-धीरे कहानी बताई: खोए हुए जुड़वाँ, चोट, तिल, परिचित हाव-भाव। अनिता की शक भरी नजर धीरे-धीरे केंद्रित और शांत हो गई।
“लव, एशु,” अनिता ने कहा, “क्या हम कुछ सवाल प्राइवेट जगह पर पूछ सकते हैं? शायद थाने में? आपको खाना, गर्म बिस्तर मिलेगा। कोई जबरदस्ती नहीं करेगा।”
बच्चों ने लंबी नज़रें मिलाईं। अंततः लव ने कहा, “सिर्फ़ आज रात के लिए। अगर अच्छा न लगे, क्या हम जा सकते हैं?”
अनिता ने सच्चाई बताई। “आपकी आवाज़ रहेगी। कोई हथकड़ी नहीं। आप किसी परेशानी में नहीं हैं।”
थाने में सोशल वर्कर ने उनका साथ दिया। फॉर्म भरे गए। बच्चों को साफ कपड़े और नहाने का मौका मिला। रीटा प्रतीक्षा करती रही, हाथों में कॉफ़ी का कप इतनी कसकर पकड़ा कि नाखून सफेद हो गए।
रक्त जांच हुई। अनिता ने धीरे-धीरे बच्चों से हल्के सवाल पूछे: जन्मदिन याद है? सड़क का नाम? पुराने घर का रंग?
“सफेद,” एशु ने धीरे कहा। “लाल दरवाजा था। और सूरजमुखी। सामने।”
रीटा रो पड़ी। उसने खुद वो सूरजमुखी लगाए थे।
कई घंटों बाद, अनिता वापस आई। उसने लिफाफा पकड़ा, पेशेवर रहते हुए भाव छुपाने की कोशिश की।
“रीटा,” उसने धीरे कहा। “एडएनए के शुरुआती परिणाम आए हैं।”
रीटा के कान बज रहे थे। “और?”
अनिता की आवाज़ टूट गई। “वे तुम्हारे हैं। दोनों। अर्जुन और राघव… तुम्हारे बच्चे।”
रीटा ने हँसी और रोना एक साथ किया। दिनेश ने उसे सहारा दिया, उसकी आँखों से भी आँसू बह रहे थे।
पुनर्मिलन फिल्म जैसी नहीं थी। सच बताने पर भी बच्चे तुरंत गले नहीं लगे। वे हैरान, सावधान, लगभग अपराधबोध में थे।
लेकिन हफ्तों में, देखरेख वाली मुलाकातों और बातचीत में, यादें धीरे-धीरे लौट आईं। वे फिर से उसे “माँ” कहने लगे, पहले गलती से, फिर जानबूझकर।
उपचार जटिल था। डरावने सपने, पैनिक अटैक, खामोश रातें। थेरपी। कोर्ट के कागजात। लेकिन साथ में हंसी, वीडियो गेम्स, और पहली बार एशु—अर्जुन—सोफे पर सिर उसके कंधे पर रखकर सो गया, जैसा पहले करता था।
एक दोपहर, रीटा अपने बच्चों को पिज़्ज़ा के आखिरी टुकड़े पर बहस करते देख रही थी। उसका सीना भर गया, आभार और दर्द के मिश्रित भावों से।
ज़िंदगी पहले जैसी नहीं रही। नहीं हो सकती थी। बहुत कुछ बदल चुका था। लेकिन उसने एक-एक छोटे कदम से आगे बढ़ना जारी रखा।
अगर आप उसी रेस्तरां में होते और लव और एशु जैसे बच्चे आपके पास आते, तो आप क्या करते? क्या आप अपने दिल को तोड़ने का जोखिम उठाते… या मौका पकड़ते, जैसे रीटा ने किया?
आप कमेंट में बताएं: इस कहानी का कौन सा हिस्सा आपको सबसे ज्यादा छू गया, और आप उन बच्चों से आज क्या कहेंगे?
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