जिस ऑफिस में पत्नी क्लर्क थी उसी में तलाकशुदा पति आईएस बना। फिर जो हुआ इंसानियत रो पड़ी। दोस्तों यह सच्ची कहानी बिहार प्रदेश के पटना शहर की है। जहां एक छोटे से किराए के कमरे में रहने वाला अभिमन्यु यूपीएससी की तैयारी में दिनरा लगा रहता था। और उसी शहर के सरकारी कार्यालय में क्लर्क बनी उसकी पत्नी सुप्रिया। धीरे-धीरे उससे उतनी ही दूर होने लगी। जितना पास वह शादी के पहले दिनों में थी। शादी को अभी छ महीने हुए थे। लेकिन इन छ महीनों में अभिमन्यु की जिंदगी तीन चीजों के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई। किताबें, नोट्स और असफलताएं।

शादी से पहले वह दो बार यूपीएससी में फेल हो चुका था। शादी के बाद उसने तीसरी बार परीक्षा दी। लेकिन रिजल्ट फिर वही निकला। उस दिन घर में एक भारी खामोशी थी जिसे सिर्फ सुप्रिया की कड़वी आवाज ने तोड़ा। कब तक रिश्तेदारों को जवाब दूं? कब तक कहती फिरूं कि मेरा पति अभी भी तैयारी कर रहा है। तीन बार फेल होने के बाद भी तुम्हें शर्म नहीं आती। अभिमन्यु ने धीमे स्वर में कहा। मैं कोशिश कर रहा हूं। थोड़ा वक्त और उसने उम्मीद की थी कि सुप्रिया कम से कम उसकी बात समझेगी। लेकिन आज उसके चेहरे पर ऐसा भाव था जैसे वह अब इस विवाह को बोझ की तरह महसूस करने

लगी हो। धीरे-धीरे उसके लहजे में चिड़चिड़ापन आ गया। नजरें बदल गई। बातें छोटी-छोटी बातों पर तानों में बदलने लगी। और सबसे ज्यादा वो अब अभिमन्यु को पहले जैसा पति नहीं। एक असफल व्यक्ति की तरह देखने लगी। सुप्रिया रोज अपने दफ्तर जाती। जहां उसे एक दुनिया मिली थी। जहां लोग उसकी तारीफ करते, जहां उसे सम्मान मिलता। जहां कोई उसके पति की असफलता का मजाक नहीं उड़ाता था। बस यही फर्क उसे घर की शांति से ज्यादा बाहर की चमक में खींचने लगा। कुछ ही दिनों में उसकी दिनचर्या पूरी तरह बदल गया। वो देर से लौटने लगी। फोन पासवर्ड में रखने लगी। बात-बात पर तनाव

दिखाने लगी। एक शाम वह बोली आज ऑफिस में एएसओ साहब ने कहा कि मैं जितनी स्मार्ट हूं मुझे बहुत पहले बड़ा पद मिल जाना चाहिए था। कह रहे थे कि मेरी फाइल सबसे साफ होती है। अभिमन्यु ने हल्की मुस्कान देकर पूछा अच्छा है। लेकिन तुम खुश कम लग रही हो। सुप्रिया ने तिरछा जवाब दिया। खुश तब होती जब तुम भी कुछ कर पाते। यह शब्द किसी चाकू से कम नहीं थे। लेकिन अभिमन्यु ने कोई लड़ाई नहीं की। वह जानता था कि उसकी असफलता अब उसकी पत्नी के धैर्य को खा रही है। धीरे-धीरे शिकायतें तानों में बदल गई। मेरी सहेलियों के पति कहीं ना कहीं पोस्टेड है। कोई सब इंस्पेक्टर है। कोई

इंजीनियर, कोई बैंक ऑफिसर और मैं सबको बताऊं कि मेरा पति अभी भी तैयारी कर रहा है। अभिमन्यु की चुप्पी। सुप्रिया के लिए कमजोरी बन गई। जबकि वही चुप्पी अभिमन्यु के अंदर गहरी ताकत पैदा कर रही थी। उसके ऑफिस में एक आदमी था। विक्रम असिस्टेंट सेक्शन ऑफिसर। उसकी आदत थी हर महिला कर्मचारी से सहजता से पेश आना और खासतौर पर उन महिलाओं से जिनके चेहरे पर अकेलापन साफ दिखता था। मैडम आपकी लिखावट बहुत साफ है। आपके जैसा काम कोई नहीं करता जब आप मुस्कुराती हैं। दफ्तर का माहौल ही बदल जाता है। यह छोटे-छोटे वाक्य सुप्रिया को अच्छे लगते थे क्योंकि वो यह सुनने की आदि

नहीं रही थी। घर में उसे सिर्फ ताने मिल रहे थे और दफ्तर में तारीफें। धीरे-धीरे फोन छुपाकर चलने लगा। स्टेटस बदल गया और बातचीत घर पर कम और ऑफिस में ज्यादा होने लगी। एक रात अभिमन्यु पानी लेने उठा तो उसके फोन में दो मैसेज चमके। विक्रम कल ऑफिस के बाद मिलते हैं। विक्रम तुम हंसो तो सच में दिन अच्छा हो जाता है। अभिमन्यु वहीं रुक गया। उसका दिल एक पल को थम गया। लेकिन उसने किसी से कुछ नहीं कहा। बस कमरे की लाइट बंद कर दी। सुबह सुप्रिया चाय बनाते हुए बोली शादी सम्मान से चलती है लेकिन इस घर में आदर बचा ही नहीं है। अभिमन्यु ने कहा आदर घर में नहीं दिल में

होना चाहिए। सुप्रिया चुप रही लेकिन उसकी चुप्पी एक तूफान थी जो आने वाला था। कुछ हफ्तों बाद वो सीधी कमरे में आई और बोली मैं तलाक चाहती हूं। मैं अब और यह जिंदगी नहीं जी सकती। अभिमन्यु ने उसकी आंखों में देखा। वहां ना प्यार था ना अफसोस। बस एक साफ निर्णय था। ठीक है। उसने धीरे से कहा। कुछ महीनों में दोनों का रिश्ता खत्म हो गया। सुप्रिया अब पूरी तरह अपनी नई दुनिया में थी। दफ्तर दोस्त और वही चमक जिसने उसके रिश्ते को निगल लिया और अभिमन्यु वह अकेला था लेकिन टूटा नहीं था। उसने चौथी बार परीक्षा फॉर्म भरा और इस बार उसके भीतर एक अजीब सी आग थी। जिस रात उसने

किताबें खोली उसकी उंगलियां थोड़ी कापी लेकिन आंखों में वह प्रकाश था जो किसी भी असफल इंसान को महान बना सकता है। कमरे की दीवारों पर सिर्फ एक वाक्य गूंज रहा था। अबकी बार सिर्फ खुद के लिए। उस रात अभिमन्यु ने किताबें दोबारा खोली। टूटा हुआ इंसान अगर चुपचाप उठ जाए तो वह पहले से ज्यादा खतरनाक बन जाता है। और वही अभिमन्यु के साथ हुआ। पहले वह पढ़ाई सुप्रिया के लिए परिवार के लिए समाज को जवाब देने के लिए करता था। लेकिन अब वह सिर्फ अपनी आत्मा को जवाब देने के लिए पढ़ रहा था। उसने मोबाइल बंद कर दिया। सोशल मीडिया छोड़ दिया और एक पुरानी डायरी में

सिर्फ तीन शब्द लिखे। दिल, दिमाग, अनुशासन। सुबह 4:00 बजे उठना, घंटों पढ़ना, हर रविवार टेस्ट देना। गलतियों पर रोने के बजाय उन्हें समझना। यह सब उसकी नई दिनचर्या बन गया। पड़ोसी कहते, अरे यह तो तलाक के बाद टूट गया होगा। लेकिन उन्हें क्या पता कि कुछ लोग टूट कर ही चमकते हैं। उधर सुप्रिया की जिंदगी भी बदली। पर वैसी नहीं जैसी उसने सोची थी। ऑफिस में विक्रम का साथ पहले मीठा लगा। फिर आदत बन गया और आखिर में बोझ। विक्रम ने उसका इस्तेमाल किया। अच्छे दिनों में तारीफें और जब शादी का दबाव आया तो सबसे पहले उसी ने उससे दूरी बना ली। एक दिन

सुप्रिया ने साफ पूछा क्या तुम मुझसे शादी करोगे? विक्रम हंस पड़ा। सुप्रिया तुम क्या मजाक कर रही हो? मैं इतनी बड़ी जिम्मेदारी नहीं उठा सकता। वैसे भी तुम तलाकशुदा हो। सोचो मेरी फैमिली क्या कहेगी। उसके शब्द किसी छुरे की तरह चुभे। सुप्रिया को पहली बार समझ आया कि वो किसी की प्रिय नहीं। किसी की जरूरत भी नहीं। सिर्फ समय बिताने का जरिया थी। उस रात वह देर तक रोती रही और सुबह जब ऑफिस गई तो उसे लोगों की आंखों में एक अजीब सी चमक दिखाई दी। मानो वे कुछ जानते हो। दरअसल विक्रम ने अपनी नई गर्लफ्रेंड के सामने सब कुछ बताकर सुप्रिया को मजाक बना दिया था

और देखते ही देखते ऑफिस में अफवाहें फैल गई। क्लर्क मैडम तो एसओ साहब के साथ घूमती थी। तलाक भी शायद इसी वजह से हुआ। घर बसा नहीं पाई। और अब यह हाल बड़ी आई थी करियर वाली। हर ताना उसके सीने पर भारी पत्थर की तरह गिरता गया। अब वो वही लड़की नहीं थी। जो आईने में खुद को सजाकर देखती थी। अब वह खुद की परछाइयों से भी डरने लगी। ड्यूटी पर जाते समय उसके पीछे लोग फुसफुसाते लौटते समय उसे इस बात की चिंता सता दी कि कौन क्या सोच रहा होगा। एक दिन तो वह फाइल हाथ से गिराकर सीधे वाशरूम में छिप कर रो पड़ी। कोई सहानुभूति नहीं। कोई हाथ थामने

वाला नहीं। बस अकेलापन पछतावा और ना खत्म होने वाली शर्म। धीरे-धीरे उसका ऑफिस जाना कम हो गया। और एक दिन वह अचानक छुट्टी पर चली गई। कोई नहीं जानता था कि वह कहां है। ना उसके परिवार को ना ऑफिस को कुछ कहते शहर छोड़कर चली गई होगी। कुछ कहते शायद किसी रिश्तेदार के यहां हो। और कुछ बदजुबान लोग डरावना अंदाज में कहते ऐसे केस में कई बार तो जान भी दे देते हैं। लेकिन किसी को सच्चाई पता नहीं थी। उधर सुप्रिया की दुनिया बिखर रही थी और पटना से दूर एक कोचिंग सेंटर के छोटे से कमरे में अभिमन्यु अपनी दुनिया जोड़ रहा था। उसने इस बार इतनी तन्मयता से पढ़ाई की कि

टीचर्स भी कहने लगे बेटा पहली बार हम तुम्हें अलग पहचान रहे हैं। तुम्हारी आंखों में फोकस जलता दिख रहा है और सच में अभिमन्यु हर दिन खुद को पहले से मजबूत पाता। प्रीलिम्स आया। उसने पेपर दिया। इस बार उसके कदम कांप नहीं रहे थे। चेहरा शांत था। मानो सब कुछ पहले से निश्चित हो। रिजल्ट आया क्वालिफाइड। लेकिन उसने जश्न नहीं मनाया। वो सिर्फ मुस्कुराया और बोला अभी एक जंग बाकी है। फिर मेंस की तैयारी शुरू हुई। घंटों लिखना, एथिक्स की मोटी किताबें, असेसमेंट, मॉक टेस्ट वो खुद को एक युद्ध में फेंक चुका था। सुप्रिया तब तक किसी गुमनामी में खो चुकी थी। कोई

स्पष्ट पता नहीं। कोई जानकारी नहीं। वहीं दूसरी तरफ अभिमन्यु के कदम अब धीमे नहीं। भरोसेमंद हो चुके थे। मेंस हुआ। उसका चेहरा शांत था। इंटरव्यू हुआ। उसकी आवाज स्थिर थी और फिर वह दिन आया जिसे उसने अपनी सारी रातों, सारे दर्द, सारी मेहनत से खरीदा था। वो आईएएस बन गया। लेकिन कहानी यहीं नहीं रुकती। अगले हफ्ते अभिमन्यु जब अपनी पोस्टिंग लेटर के साथ पटना सचिवालय के मुख्य भवन में दाखिल हुआ तो उसके कदमों के नीचे वही फर्ज था जहां कभी सुप्रिया रोज चला करती थी। दफ्तर की हवा, फाइलों की गंध, पुराने फैन की आवाज, सब कुछ वैसा ही था। बस अब वह एक उम्मीदवार

नहीं। एक आईएएस अधिकारी के रूप में अंदर प्रवेश कर रहा था। जैसे ही वह गलियारे से आगे बढ़ा। लोग खड़े होकर सलाम करने लगे। किसी के होठों पर सम्मान, किसी की आंखों में आश्चर्य और कुछ पुरानी चेहरों में एक अजीब सी खामोशी दिखाई दे रही थी। वह वही कार्यालय था जहां कभी सुप्रिया क्लर्क की नौकरी करती थी और जिसके दरवाजे से होकर उसकी जिंदगी एक ऐसी दिशा में मुड़ गई थी जहां आखिर में सिर्फ पछतावा बचा अभिमन्यु के कदम धीमे थे लेकिन आत्मविश्वास की गूंज पूरे कॉरिडोर में फैल चुकी थी अंदर स्टाफ मीटिंग चल रही थी जैसे ही अभिमन्यु ने कमरे में प्रवेश किया सभी लोग एक साथ खड़े

हो गए। गुड मॉर्निंग सर। अभिमन्यु ने हल्की मुस्कान दी। कक्ष में बैठे कई कर्मचारी पहली बार उसे देख रहे थे। लेकिन कुछ पुराने चेहरे उसे पहचानने में ज्यादा समय नहीं लगे। विक्रम वही असिस्टेंट सेक्शन ऑफिसर जो कभी सुप्रिया की तारीफें करते नहीं थकता था। अब अपनी कुर्सी पर अजीब सी बेचैनी के साथ उठकर खड़ा हो गया। उसकी आंखों में वही घबराहट थी जो व्यक्ति को तब महसूस होती है जब उसकी गलतियों का इतिहास अचानक सामने खड़ा मिल जाए। अभिमन्यु ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। ना कोई एहसान ना कोई बदला बस एक स्थिर शांत गरिमामय दृष्टि। विक्रम ने गला साफ किया।

सर नमस्कार। अभिमन्यु ने सामान्य स्वर में कहा बैठ जाइए। मीटिंग शुरू करें। लेकिन कमरे में मौजूद हर व्यक्ति समझ रहा था कि यह दृश्य सिर्फ एक औपचारिकता नहीं एक किस्म का कर्म का दर्पण है। मीटिंग के दौरान अभिमन्यु का ध्यान काम पर था। जिलों के रिपोर्ट फाइलों की स्थिति नए सुधार लेकिन विक्रम का ध्यान कहीं और था। वो बार-बार अपने मोबाइल को देखता। फिर खिड़की के बाहर फिर अपनी उंगलियों को नर्वस होकर मसलता। मीटिंग खत्म होने के बाद अभिमन्यु अपने कमरे की ओर बढ़ा। स्टाफ धीरे-धीरे छंट गया। लेकिन विक्रम वहीं खड़ा रहा। कुछ देर बाद हिम्मत करके वो आगे बढ़ा। सर एक

बात कहनी थी। अभिमन्यु रुका। लेकिन उसकी आंखों में कोई भाव नहीं। कहिए। विक्रम ने धीमी आवाज में कहा। मुझे पता है सर आप मेरी वजह से मतलब आपकी निजी जिंदगी में बहुत कुछ गलत हुआ। अभिमन्यु ने उसे रोक दिया। विक्रम मेरी निजी जिंदगी अब अतीत है। मैं उसे लेकर ना किसी पर आरोप लगाता हूं। ना किसी से हिसाब लेता हूं। विक्रम के चेहरे पर राहत और शर्म दोनों मिलकर एक अजीब सा भाव बना रहे थे। अभिमन्यु आगे बोला लेकिन हां आप यहां सरकारी जिम्मेदारी निभाते हैं। मेरे सामने किसी का निजी चरित्र नहीं उसका काम मायने रखता है। बस इतना याद रखो किसी की कमजोरी पर हंसना

आसान है। लेकिन जिंदगी हर किसी को एक दिन आईना दिखाती है। विक्रम की आंखें झुक गई। वो बिना कुछ कहे वापस लौट गया। दफ्तर में खबर आग की तरह फैल गई कि नए आए साहब वही अभिमन्यु है जो कभी इसी शहर में फेल होता रहा और जिसकी पत्नी यही दफ्तर छोड़कर चली गई लेकिन अभिमन्यु किसी चर्चा में दिलचस्पी नहीं रखता था उसके कमरे में किताबें थी फाइलें थी और वह संकल्प जो उसने अपने सबसे कमजोर दिन में लिया था शाम को जब वह अपने ऑफिस से बाहर निकल रहा था गेट के पास पुरानी फाइलें लिए। एक बुजुर्ग चपरासी बोला, बेटा आज तुम्हें देखकर मन खुश हो गया। कभी तुम्हें रोते देखा था। इस

दफ्तर के बाहर और आज तुम्हें अफसर बनकर आते देख। लगता है भगवान देर करता है। अंधा नहीं है। अभिमन्यु उसकी बात सुनकर कुछ पल के लिए ठहर गया। उसकी आंखों में हल्की नमी आ गई। नमी कमजोरी की नहीं पूर्णता की बाहर निकलते ही ठंडी हवा उसके चेहरे से टकराई वो सीढ़ियां उतर रहा था कि पीछे से एक महिला कर्मचारी ने धीरे से कहा सर आपने सुना सुप्रिया मैडम का कोई पता नहीं चल रहा कहते हैं वह शहर छोड़ गई कुछ कहते हैं कि कहीं और चली गई किसी को कुछ नहीं पता अभिमन्यु का कदम एक पल के लिए रुका लेकिन चेहरा स्थिर रहा। उसने सिर्फ इतना कहा जीवन जिसे जहां ले जाए वही उसका रास्ता बन

जाता है और वह आगे बढ़ गया। उस रात अभिमन्यु अपने सरकारी आवाज में अकेला बैठा। फाइले देख रहा था। पर सच यह था कि फाइले वो पढ़ रहा था। और पुरानी यादें उसके भीतर खुल रही थी। किसी को दोष देने का मन नहीं था। किसी से बदला लेने का मन नहीं था। बस एक गहरी शांत सच्चाई उसके अंदर थी। क्योंकि कभी-कभी जिंदगी हमें जीत उन्हीं जगहों पर दिलाती है जहां हम सबसे ज्यादा हारते हुए दिखते हैं। उसी रात बाहर बारिश लगातार हो रही थी। जैसे कोई अधूरा हिसाब मांग रही हो। तभी दरवाजे पर बहुत ही हल्की कांपती हुई दस्तक हुई। उसका दिल एक पल को ठहर गया। इस वक्त कौन हो सकता है?

वह उठकर दरवाजे तक गया। हैंडल घुमाया और जैसे ही दरवाजा खुला समय एक पल के लिए रुक गया। बरसात से भीगी दहलीज पर एक औरत खड़ी थी। कभी उसी की पत्नी रही सुप्रिया। लेकिन यह वही सुप्रिया नहीं थी। जो कभी तानों में तेज नजर में घमंड कदमों में चमक लेकर चलती थी। आज उसके चेहरे पर थकान की मोटी परत थी। आंखों में नींद का नहीं बल्कि पछतावे का काला अंधेरा था। दुपट्टा पानी में भीग कर कंधों से चिपक गया था। कपड़े ढीले पड़ गए थे और बाल ऐसे बिखरे थे। मानो कई हफ्तों से हवा का सामना करते-करते थक गए हो। उसकी आवाज टूटी हुई थी। अभिमन्यु मेरे पास कहीं जाने की जगह नहीं

बची। बस यही चार शब्द अभिमन्यु के अंदर गहराई तक उतर गए। उसने कोई सवाल नहीं पूछा ना आंखें तरेरी ना ताना दिया। बस धीरे से कहा अंदर आ जाओ। सुप्रिया ने दहलीज पार की लेकिन उसके कदम कांप रहे थे। जैसे हर कदम उसकी गलतियों की ओर इशारा कर रहा हो। अभिमन्यु ने उसे तौलिया दिया। पानी रखा और सोफे पर बैठने को कहा। लेकिन वह वही सोफे के पास खड़ी रह गई। मानो अपने ही अस्तित्व से डर रही हो। आंसू टपटप चुपचाप गिरते रहे। आंखें लाल हो चुकी थी। वो बमुश्किल इतना कह पाई तुम्हारे सामने आने की। हिम्मत नहीं थी मेरे पास। लेकिन अब जिंदगी ने इतना गिरा दिया है कि शर्म भी भारी

लगने लगी है। उसकी आवाज ऐसी लग रही थी। जैसे कहीं भीतर से टूटी हुई ईंटें गिर रही हो। कुछ मिनट चुप्पी में बीत गए। फिर सुप्रिया सोफे पर बैठी और अचानक बोल पड़ी। विक्रम ने मेरा इस्तेमाल किया। अभिमन्यु तुम सही थे। मैं गलत थी। मैं बहुत गलत थी। उसके शब्द कमरे की दीवारों से टकराकर फिर उसी पर लौट रहे थे। मैंने सोचा था कि तुम्हारी असफलताओं से दूर जाकर मैं जीत जाऊंगी। मुझे लगा था कि कोई मुझे सराहेगा, उठाएगा। लेकिन दुनिया ने सिर्फ गिराया। इतना गिराया कि अब खड़े होने में भी शर्म आती है। अभिमन्यु शांत रहा। उसका चेहरा कठोर नहीं। बल्कि बहुत शांत था। जैसे

जिंदगी ने उसे दर्द से परे जाकर एक नई परिपता दे दी हो। वो बोला तुम यहां क्यों आए हो सुप्रिया? सुप्रिया की आंखें छलक उठी क्योंकि दुनिया में एक समय ऐसा भी था जब मुझे लगता था कि तुम मेरे सबसे करीब हो और अब जब सबने मुझे छोड़ दिया है। सबने मुझे मजाक बनाया है। सबने मुझे गंदगी की तरह देखा है। तो बस एक ही चेहरा याद आया। तुम्हारा उसने सिर झुका लिया। मैं तुम्हें अपना समझने नहीं आई। मैं तुम्हें वापस पाने नहीं आई। मैं बस आखिरी बार माफी मांगने आई हूं। कहते कहते वो रो पड़ी। कंधे हिलते रहे। उसकी आवाज दीवारों पर गिरते बूंदों जैसी लग रही थी। टूटी बिखरी

कमजोर। अभिमन्यु धीमे स्वर में बोला। सुप्रिया माफी मैं दे चुका हूं। दिल में कोई नफरत नहीं बची है। लेकिन सुप्रिया ने कांपते हुए पूछा लेकिन क्या हमारे बीच कुछ भी नहीं बचा? अभिमन्यु ने एक गहरी सांस ली। जिस रिश्ते में सम्मान मर जाए। वो रिश्ता बदनामी तक तो पहुंच सकता है। लेकिन घर कभी नहीं बन सकता। तुमने मेरी असफलताओं पर ताने मारे। मेरे सपनों को बोझ कहा। मेरे संघर्ष का मजाक बनाया। फिर किसी और की बातों में अपनी खुशी खोजने चली गई। मैंने तुम्हें खोया नहीं। सुप्रिया तुमने मुझे छोड़ दिया था। यह शब्द तलवार की तरह नहीं। दर्पण की तरह

थे जिसमें सुप्रिया ने अपनी पूरी सच्चाई देख ली। वो धीरे से फर्श पर बैठ गई। चेहरा दोनों हथेलियों में छिपा लिया। कुछ देर बाद बोली, तो क्या मेरे लिए कोई जगह नहीं बची? अभिमन्यु उसके पास गया। उसका हाथ उठाया और बहुत नरमी से बोला जगह है पर वह दया की है प्यार की नहीं सुप्रिया एकदम चुप हो गई जैसे उसके भीतर का हर शब्द खुद ही मर गया हो कुछ मिनट बाद उसने कहा मैं जा रही हूं लेकिन यह सच स्वीकार करके जा रही हूं कि जिस इंसान को मैं समझ नहीं पाई उसी ने मुझे सबसे ज्यादा समझा मैंने एक सच्चे आदमी को खो दिया अभिमन्यु और यह मेरी ऐसी गलती है जो मैं जीवन भर नहीं

सुधार पाऊंगी। उस रात वह चुपचाप चली गई। कहां गई? किसी को नहीं पता। कुछ कहते शहर छोड़ दिया। कुछ कहते किसी रिश्तेदार के पास और कुछ डरावनी फुसफुसहटों में कहते। पता नहीं जिंदा भी है या नहीं। लेकिन अभिमन्यु ने उसका पीछा नहीं किया। ना उसे रोका, ना उसे दोष दिया। वह बस देर तक खिड़की के पास खड़ा। बरसात को देखता रहा और फिर फुसफुसाया। कुछ लोग हमारी जिंदगी में सबक बनकर आते हैं। साथ निभाने नहीं। दिन बीतते गए। अभिमन्यु अपने काम में डूब गया। दफ्तर, फाइलें, जनता, निरीक्षण, समस्याएं, हर दिन उसे महसूस होता कि जिंदगी ने उसे पद से ज्यादा एक चरित्र

दिया है। एक दिन सचिवालय से बाहर निकलते हुए वह वही बूढ़ा चपरासी मिला जिसने पहली बार कहा था भगवान देर करता है बेटा अंधा नहीं। आज बूढ़े व्यक्ति ने पूछा सुना है तुम्हारी पत्नी वापस आई थी। तुमने अपनाया नहीं? दर्द हुआ होगा। अभिमन्यु ने हल्की मुस्कान दी। दर्द तब होता है बाबा जब उम्मीद बाकी हो। मुझे बस जीवन ने इतना सिखा दिया है कि जो लोग तुम्हें कठिन दिनों में नहीं पहचानते उन्हें अपने अच्छे दिनों में खुद को पहचानने का हक कभी नहीं मिलता बूढ़ा व्यक्ति भावुक होकर बोला सही कहा बेटा तुम बड़ा आदमी पद से नहीं बने दिल से बने हो अभिमन्यु सीढ़ियां उतरते

हुए धीरे-धीरे मुस्कुराया और दिल वही बड़ा होता है जिसमें बदला नहीं बदलाव हो उस दिन सचिवालय की हवा में एक सच्चाई गूंज रही थी। जिस ऑफिस में पत्नी क्लर्क थी उसी में तलाकशुदा पति आईएस बनकर लौटा। लेकिन उसने बदला नहीं। इंसानियत दिखाई और इंसानियत यही सबसे बड़ी जीत है जो जिंदगी कभी हारने वालों को इनाम में देती है क्योंकि कभी-कभी जिंदगी हमें जीत वही दिलाती है जहां हम सबसे ज्यादा हारते हुए दिखते हैं। दोस्तों जिंदगी हमें उतना नहीं तोड़ती जितना हमारा अपना अहंकार तोड़ देता है। सुप्रिया की कहानी सिखाती है कि जब इंसान रिश्तों में सम्मान की जगह तुलना, विश्वास

की जगह शक और प्रेम की जगह घमंड भर लेता है तब वह अपने ही हाथों अपनी खुशियों की कब्र खोद देता है। दुनिया में कोई भी पद कोई भी सुंदरता या कोई भी बाहरी चमक कभी उस चरित्र की बराबरी नहीं कर सकती जो सच्चाई और वफादारी से बना हो। अभिमन्यु इसीलिए जीतता है क्योंकि उसने दूसरों को बदलने की कोशिश नहीं की बल्कि खुद को बेहतर बनाने में लगा रहा। वो चुप रहा लेकिन टूटा नहीं। वो अपमानित हुआ लेकिन बिखरा नहीं और वही चुपी वही धैर्य आखिर में उसकी सबसे बड़ी ताकत बन गई। धोखे से मिला सुख कुछ दिनों का होता है। लेकिन उसका पछतावा पूरे जीवन का बोझ बन जाता है।

सुप्रिया का पतन इस दुनिया की सबसे सरल लेकिन सबसे कठोर सीख है। जो इंसान वफादारी खो देता है। वह अपनी इज्जत भी खो देता है। और अभिमन्यु यह सिखाता है माफ करना कमजोरी नहीं। बल्कि सबसे बड़ी जीत होती है। पर गलत को दोबारा अपनाना अपने चरित्र का अपमान होता है। किस्मत अक्सर देर से न्याय करती है लेकिन करती जरूर है। हर इंसान वही काटता है जो वह बोता है। चाहे प्यार हो या धोखा और अंत में जीवन बस यही सिखाता है। रिश्ते कमजोर नहीं होते। हम उन्हें कमजोर बनाते हैं और चरित्र मजबूत हो तो पूरी दुनिया झुकती है। लेकिन अगर आप अभिमन्यु

की जगह होते तो क्या आप भी सुप्रिया को सिर्फ माफ करते या दोबारा अपनाने की कोशिश करते? कमेंट में जरूर बताएं। और हां, अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो वीडियो को लाइक करें। चैनल स्टोरी बाय बीके को सब्सक्राइब करें और अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें। मिलते हैं दोस्तों अगली कहानी में तब तक रिश्तों की कीमत समझिए और अपनी एक-एक कद्र कीजिए।