आयशा कुरैशी का साहस

प्रस्तावना

पटना की वह बड़ी जेल, जो बाहर से शांत पर अंदर से जहन्नुम का नजारा। यहां रात सूरज डूबने से नहीं, बल्कि इंसानियत के डूबने से शुरू होती थी। वर्दी के पीछे छिपे दरिंदे हर रात आते, जो चाहते वो करते और कैदी औरतें डर के मारे जुबान नहीं खोलती थीं। उन्हें पता था कि अगर कुछ बोला तो जिंदगी नर्क बन जाएगी। लेकिन उस अंधेरी दीवार को चीरने के लिए एक तूफान आ चुका था। नाम था आईपीएस आयशा कुरैशी। एक निडर और बेबाक अफसर जिसने सिस्टम के हर जुल्म को जड़ से उखाड़ने की कसम खाई थी।

आयशा ने कहा कि अब यह सब बर्दाश्त नहीं होगा। उन्होंने एक फैसला लिया। एक ऐसा फैसला जो उनकी जिंदगी को हमेशा के लिए बदल सकता था। आयशा ने अपनी आईपीएस की वर्दी उतारी और एक बेबस कैदी का भेष धारण किया। मिशन साफ था: जेल के अंदर हो रहे अन्याय को पकड़ना।

जेल का माहौल

पहली ही रात जेल के बड़े शैतान अंदर आए और उनकी सीधी नजर आयशा पर पड़ी। अब सवाल यह था, क्या एक आईपीएस अफसर भी बाकी कैदियों की तरह उन दरिंदों के हाथों बर्बाद हो जाएगी? क्या वह खौफनाक रात उसका आखिरी मिशन साबित होगा? या फिर आईपीएस आयशा कुरैशी उन सारे भेड़ियों को उनके ही बिल में घुसकर पकड़ेगी?

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दोस्तों, बिहार का एक शहर पटना, जो बाहर से जितना अच्छा दिखता है, अंदर से उतना ही अंधेरों और भयानक सच्चाइयों से भरा हुआ है। कहा जाता है कि यह शहर कभी नहीं सोता। इसी शहर में एक निडर और सख्त मिजाज पुलिस ऑफिसर आईपीएस आयशा कुरैशी तैनात थी।

आयशा का परिचय

आयशा बाहर से शांत और सुलझी हुई नजर आती थी, लेकिन अंदर से वह फौलाद की तरह सख्त इंसाफ के लिए बेरहम और उसूलों पर कायम खातून थी। पटना के बड़े से बड़े मुजरिम का हाल यह था कि उनका नाम सुनते ही थरथराने लगते। मशहूर था कि अगर कोई मुजरिम कसूरवार ना भी हो तो सिर्फ आयशा कुरैशी के खौफ से अपने गुनाह कबूल कर लेता था।

आयशा एक छोटे कस्बे गया से निकलकर इस बड़े शहर पटना में अपनी मेहनत और जद्दोजहद के दम पर आईपीएस के ओहदे तक पहुंची थी। वह सिर्फ आईपीएस ऑफिसर नहीं थी, बल्कि उन सबके लिए उम्मीद की किरण थी जिन पर जुल्म ढाया गया था। उनका एक उसूल था: जालिम चाहे कितना ही बड़ा क्यों ना हो, सजा जरूर पाएगा। यही वजह थी कि पटना के गली कूचों में उनके नाम से खौफ फैल जाता था।

जेल का दौरा

एक दिन की बात है। सुबह का वक्त था। आईपीएस आयशा कुरैशी अपने ऑफिस के केबिन में बैठी चाय पी रही थी और सामने पड़े ताजा अखबार की सुर्खियां पढ़ रही थी कि अचानक दरवाजा खुला। अंदर आया एक हल्की सी घबराहट में डूबा हुआ जेल का मुलाजिम रवि, जो पटना महिला जेल में किचन असिस्टेंट और सफाई के काम पर मामूर था।

रवि का चेहरा पीला पड़ा हुआ था। वो हिचकिचाते हुए बोला, “मैडम, मुझे आपसे एक निहायत जरूरी बात करनी है।” आयशा ने अखबार मेज पर रखा। चाय का कप हल्के से साइड पर किया और संजीदगी से बोली, “हां रवि, कहो क्या बात है?”

रवि ने खौफदा लहजे में कहा, “मैडम, पटना जेल में खवातीन कैदी महफूज नहीं हैं। रातों को उनके साथ बहुत बुरा सलूक किया जाता है। उन्हें डराया धमकाया जाता है और उनका इस्तेसाल किया जा रहा है।”

आयशा की प्रतिक्रिया

आयशा कुरैशी के चेहरे पर गहरी संजीदगी छा गई। उन्होंने सख्त लहजे में कहा, “तुम्हें अंदाजा है कि तुम कितना संगीन इल्जाम लगा रहे हो?” रवि की आवाज कांप रही थी। “जी मैडम। मगर मैं सच बोल रहा हूं। जो पुलिस वाले दिन में ड्यूटी करते हैं, वही रात को ख्वातीन कैदियों के साथ जुल्म करते हैं। वो उन्हें डराते हैं और उनकी मजबूरियों का फायदा उठाते हैं।”

आयशा की आंखों में गुस्से की चमक उभर आई। “क्या तुम्हारे पास इसका कोई सबूत है?” रवि ने गहरी सांस ली और बोला, “मैडम, मैंने सब कुछ अपनी आंखों से देखा है। लेकिन मेरे पास ना सबूत जमा करने का इख्तियार है ना हिम्मत। अगर मैं आवाज उठाता तो शायद आज जिंदा ना होता। इसीलिए मैं आपके पास आया हूं क्योंकि मुझे आप पर भरोसा है।”

आयशा लम्हा भर के लिए खामोश हो गईं। उनके माथे पर बल नुमाया हो गए। “रवि, जब मैं पिछले हफ्ते जेल के दौरे पर गई थी तो किसी भी कैदी औरत ने शिकायत क्यों नहीं की?” रवि ने नजरें झुका कर कहा, “मैडम, वो सब खौफ के साए में जीती हैं। उन्हें धमकाया जाता है कि अगर जुबान खोली तो उनका ऐसा अंजाम होगा जिसका वो तसवुर भी नहीं कर सकती।”

आयशा का निर्णय

आयशा ने अपनी कुर्सी से उठकर खिड़की की तरफ देखा। लम्हा भर की खामोशी के बाद उनका लहजा फौलाद की तरह सख्त हो गया। “रवि, तुमने बहुत हिम्मत दिखाई है। अब मेरी बारी है। आज ही शाम को बिना इस्तीला दिए मैं खुद जेल का दौरा करूंगी।”

आयशा कुरैशी एक शाम पटना महिला जेल के गेट पर पहुंची। कागजी कार्रवाई रश्मि सलामी और प्रोटोकॉल के बीच इंस्पेक्टर ने बड़ी मुस्तैदी से उन्हें हर कोना दिखाया। फाइलों में सब कुछ तरतीब से था। रजिस्टर में कोई कमी नहीं थी और बाहर से देखने पर जेल बिल्कुल एक मॉडल की तरह लग रही थी।

लेकिन आयशा के तजुर्बाकार दिल को मालूम था कि असल चेहरा हमेशा उन दीवारों के पीछे छुपा होता है जहां आम निगाहें नहीं पहुंच सकतीं। उन्होंने कैदी खवातीन को अलग-अलग कमरे में बुलाकर उनसे बातचीत की। मगर हर सवाल का जवाब सिर्फ खामोशी था। किसी की आंखें नीचे झुक जातीं, किसी के होंठ कांपते, मगर अल्फाज बाहर ना निकलते।

खौफ, थकान और एक अजीब सी बेबसी का बोझ हर चेहरे पर लिखा था। आयशा ने फौरन महसूस किया कि यह वह खामोशी है जो हजारों चीखों से ज्यादा खौफनाक होती है। जब तक उन कैदियों को यह यकीन ना दिलाया जाए कि उनकी हिफाजत कोई कर रहा है, तब तक वह अपनी जुबान नहीं खोलेंगी।

आयशा का मिशन

अगले दिन आयशा अपने केबिन में बैठी थी। सामने फाइलें खुली थीं, मगर उनकी नजरें खला में गुम थीं। उनके चेहरे पर वही सवाल बार-बार उभर रहा था: सच को सामने कैसे लाया जाए? यह सवाल ही उनके लिए फैसला बन गया। उन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा और खतरनाक कदम उठाने का सोच लिया।

वह जानती थीं कि अब वक्त आ गया है पर्दा हटाने का। चाहे इसके लिए अपनी जान को दांव पर क्यों ना लगाना पड़े। उन्होंने अपने काबिल एतमाद मातहत को बुलाकर आहिस्ता मगर मजबूत लहजे में कहा, “आज रात मैं खुद एक कैदी का रूप धार कर अंदर जाऊंगी। ना वर्दी होगी, ना पहचान, ना कोई इत्तला। तभी तो असल हकीकत सामने आएगी।”

और फिर वो रात आई। वही काली रात जिसने ना सिर्फ आयशा कुरैशी की जिंदगी को हिला कर रख दिया, बल्कि इंसानियत, कानून और इंसाफ के सबसे स्याह चेहरे को उनके सामने बेनकाब कर दिया। तारीख थी 18 मार्च जुमेरात। वक्त था रात के 9:00 बजे का।

जेल में प्रवेश

पटना की फजा में एक अजीब घुटन फैली हुई थी। हवा में नमी थी जैसे सांस लेना भी मुश्किल हो। जेल के अतराफ पुलिस अहलकार अध सोए, अध जागे अपनी ड्यूटी पर थे। कहीं कोई लापरवाही से सिगरेट के धुएं में खोया हुआ था। कहीं महज दिखावे की निगरानी हो रही थी और कहीं ताकत के नशे में डूबे वर्दी वाले अपने ही इख्तियारात का गलत इस्तेमाल कर रहे थे।

इन्हीं हालात में आयशा ने एक ऐसा कदम उठाया जिसके लिए फौलाद का दिल चाहिए। उन्होंने आम कैदियों के कपड़े पहने, चेहरे पर घूंघटनुमा दुपट्टा डाल लिया और एक फर्जी पहचान के साथ पटना महिला जेल के अंदर कदम रख दिया। यह मिशन उनके लिए बिल्कुल अंधेरे में अकेले चलने जैसा था। ना सरकारी हिफाजत, ना पहचान, ना शिनाख्ती कार्ड। सिर्फ एक अज्म था और यह ईमान कि अगर सच सामने ना आया तो इंसाफ मर जाएगा।

जेल का अंधेरा

रात के 10:30 बजे वह जेल के उस हिस्से में पहुंची जहां ख्वातीन कैदियों को अलग-अलग कमरों में रखा जाता था। वहां की फजा आम दुनिया से बिल्कुल अलग थी। दीवारों पर नमी के धब्बे, बदबू से भरी हवा, कैदियों की दबी-दबी सिसकियां और बीच-बीच में गालियों और लाठियों की आवाजें।

आयशा ने जो मंजर देखे, वह किसी भी मजबूत इंसान का दिल दहला देने के लिए काफी थे। कुछ पुलिस वाले कैदियों को जबरदस्ती नचवा रहे थे। कोई उनके जिस्मों पर हाथ फेर रहा था। कोई बेहूदा मजाक कर रहा था। कुछ औरतें बेबस होकर खामोशी सह रही थीं। कुछ की चीखें दबा दी गई थीं और कुछ के चेहरों पर वो अज़यत लिखी थी जो अल्फाज से बयान नहीं हो सकती।

आयशा के दिल की धड़कनें तेज हो गईं। वह जानती थीं कि यह जेल सिर्फ एक कैदखाना नहीं, बल्कि एक अंधी नगरी है जहां ताकत कानून पर भारी है। लेकिन वह भी तैयार होकर आई थीं। उनके कपड़ों के अंदर एक छोटा सा खुफिया कैमरा लगा था जो हर मंजर रिकॉर्ड कर रहा था। कॉलर के नीचे छुपा माइक्रोफोन हर आवाज बाहर एक खुफिया टीम को पहुंचा रहा था। आयशा कुरैशी अकेली नहीं थीं। उनकी हिम्मत के साथ एक सच की पूरी टीम खड़ी थी।

पहला सामना

जैसे ही आयशा कुरैशी जेल के अंदर कैदियों के बीच पहुंचीं, एक पुलिस वाला तेज कदमों से उनकी तरफ बढ़ा। उसकी आंखों में शक और लबों पर तिरछी हंसी थी। उसने घूरते हुए कहा, “अरे तुम कौन हो? तुम्हें पहले कभी यहां नहीं देखा? तुम्हारा नाम क्या है?”

आयशा ने एक गहरी सांस ली। जैसे अपने गुस्से और सच्चाई को काबू में रख रही हों। नरम लहजे में जवाब दिया, “साहब, मैं आज ही यहां लाई गई हूं।” सभी कैदियों के साथ शिफ्ट में।

पुलिस वाले ने अपनी मूछों को मरोड़ते हुए और ज्यादा सख्त आवाज में पूछा, “कौन सा जुर्म किया है तुमने?”

आयशा ने नजरें झुकाते हुए कहा, “मुझ पर चोरी का इल्जाम है, लेकिन मैं बेकसूर हूं। मैंने कुछ नहीं किया।” पास ही खड़े दो-तीन पुलिस वाले जहरीली हंसी-हंसने लगे।

सच्चाई का सामना

एक ने तंज कसते हुए कहा, “हां हां हां। हर कैदी यही रट लगाता है। सच तो कभी कोई बोलता ही नहीं। नाम क्या बताया तुमने?” आयशा ने अपनी आवाज को नरम रखते हुए कहा, “मेरा नाम फातिमा है।”

एक पुलिस वाला अहंकार भरते हुए बोला, “वाह रे, नाम भी बिल्कुल अजीब है। अच्छा अब ज्यादा बातें ना करो। हमारे पांव दबाओ, वरना अंजाम अच्छा नहीं होगा।”

आयशा ने उसकी आंखों में आंखें डालकर पुरसुकून मगर फौलादी लहजे में कहा, “साहब, मैं यहां अपनी सजा भुगतने आई हूं। आपकी खिदमत के लिए नहीं। जब तक इल्जाम साबित नहीं होता, मैं महज एक मुश्तबा हूं, गुलाम नहीं।”

यह जुमला सुनते ही माहौल में तनाव फैल गया। एक पुलिस अफसर का खून खौल उठा। वो गुस्से से चीखा, “जुबान ज्यादा चलती है तेरी। जो कहा जाए वो कर वरना ऐसी कोठरी में डाल दूंगा कि जिंदगी भर रोती रहेगी।”

आयशा ने अपने लहजे को और मजबूत किया। जैसे डर के तमाम दरवाजे उनके लिए बंद हो गए हों। “मैं डरने नहीं आई। मैं यहां अपने ऊपर लगे झूठे दाग को धोने आई हूं। सच को छुपाने के लिए जितनी धमकियां दोगे, उतनी ही मेरी हिम्मत बढ़ेगी।”

कैदियों की मदद

इतने में एक कमजोर और थकी हुई औरत कैदी चुपके से उसके पास आई। उसकी आंखों में आंसू और होठों पर लड़खड़ाहट थी। वो धीरे से बोली, “बैठ जा बहन। इनसे कुछ ना कह, जो कहे वैसा ही कर। यह लोग मारते हैं। जलील करते हैं। यहां सिर्फ एक उसूल है: जियो मगर खामोश रहो।”

आयशा ने उससे आहिस्तगी से पूछा, “तूने कभी इनके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाई?” कैदी ने चारों तरफ खौफजदा नजरों से देखा और सरगोशी में कहा, “यहां डर है। जिसने जुबान खोली, उसे अकेले कमरे में बंद कर दिया गया और फिर रात को ऐसी बातों में झोंक दिया गया जिनका सोचकर भी रूह कांप जाए।”

उसी लम्हे एक पुलिस अफसर ने आगे बढ़कर आयशा का बाजू पकड़ा और सख्त लहजे में कहा, “बस बहुत हो गया। अब तुझे ऐसे कमरे में ले चलता हूं जहां तेरा सारा गुरूर खाक में मिल जाएगा।”

आयशा जानती थीं कि अब खेल असल तौर पर शुरू हो रहा है। वो खामोशी से उनके साथ चली गईं। उन्हें एक तारीख कमरे में धकेल दिया गया जहां सिर्फ दो पुलिस वाले और वो थीं। दरवाजा अंदर से बंद कर दिया गया।

"जब एक महिला पुलिस अफसर कैदी बनकर जेल के अंदर गई...तो वहां पुलिसवालों ने जो  किया, #emotionalstory

खौफनाक कमरे में

एक अफसर ने करत आवाज में कहा, “अब बता तू असल में कौन है? इतना शोर क्यों मचाती है? आजकल की लड़कियां खुद को शेरनी समझने लगी हैं।” दूसरे ने मकरूह हंसी-हंसी में कहा, “हां हां, हम जैसे पुलिस वाले दोस्त भी बन सकते हैं और ऐसे दुश्मन भी कि जिंदगी बर्बाद कर दें।”

आयशा ने पुरसुकून मगर एतमाद भरी निगाहों से उन दोनों की तरफ देखा और बोली, “मैंने कुछ गलत नहीं कहा। मगर तुम दोनों मुझे यहां क्यों लाए हो?”

एक पुलिस अफसर ने करीब आकर धमकी दी, “चुप रहो। आधे घंटे में तुम्हें तुम्हारी असल औकात बता देंगे।” आयशा ने महसूस किया कि अब फैसला करने का समय आ गया है।

आयशा की पहचान

उन्होंने एक गहरी सांस ली और उनके अल्फाज कमरे में बिजली की कड़क की तरह गूंजे। “सुन लो, मेरा नाम फातिमा नहीं है। मैं आईपीएस आयशा कुरैशी हूं और तुम दोनों जो कुछ कर रहे हो, हर लम्हा रिकॉर्ड हो रहा है।”

यह सुनते ही दोनों पुलिस वाले सख़्त में आ गए। उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ गईं। अभी जो गुरूर उनकी आवाज में था, वह लम्हे भर में खौफ में बदल गया। आयशा कुरैशी का चेहरा सख्त और गंभीर था। उनकी आंखों में वह अज्म झलक रहा था जिसे हिलाना आसान नहीं था।

उन्होंने अचानक अपनी असली पहचान जाहिर कर दी। सवाल यह था, आयशा ने अपनी शिनाख्त इतनी जल्दी क्यों खोल दी? असल में वह जानती थीं कि सामने खड़े यह दोनों पुलिस अहलकार अभी महज दो माह पहले ही इस जेल में तैनात हुए हैं।

पुलिस वालों का डर

अभी उनकी रूह पूरी तरह काला दाग नहीं बनी थी। अभी उनमें थोड़ी बहुत इंसानियत बाकी थी। मगर वह भी इस क्रप्ट निजाम के शिकंजे में आकर धीरे-धीरे अंदर से गलने लगे थे। आयशा ने उन्हें सीधी नजरों से देखा और धीरे-मगर वजनदार आवाज में सवाल किया, “तुम दोनों का क्या नाम है?”

एक ने नजरें झुकाकर हिचकिचाते हुए कहा, “मनोज,” दूसरे ने भारी सांस लेते हुए बोला, “मेरा नाम रमेश है।”

आयशा ने लम्हा भर तवकुफ किया। फिर संजीदा लहजे में पूछा, “क्या तुम जानते हो, तुम इस वक्त किससे बात कर रहे हो?” दोनों दरोगा एक दूसरे को देखने लगे और एक साथ बोले, “नहीं और हमें इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। यहां हर कोई झुकता है। तुम भी झुकोगी। बस थोड़ी देर में साहब आ रहे हैं। फिर तुम्हारी सारी अकड़ निकल जाएगी। इस जेल में कोई अफवाह नहीं है। सबको सीधा कर दिया जाता है।”

आयशा का चेहरा अब फौलाद बन चुका था। लेकिन उनकी आंखों में एक ऐसी रोशनी थी जो उनके अंदर के एतमाद को जाहिर कर रही थी। वो पूरी ताकत के साथ बोली, “सुनो, मैं मामूली औरत नहीं हूं। मैं पटना शहर की आईपीएस हूं। आयशा कुरैशी और यह बात मैंने तुम्हें इसीलिए बताई है क्योंकि अब तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। यह मेरा जाति मिशन नहीं है। यह इंसानियत का मिशन है।”

मनोज और रमेश की प्रतिक्रिया

मनोज और रमेश दोनों सख्त में आ गए। एक ने झुंझुलाहट में कहा, “तो आईपीएस है तो क्या हुआ? हम भी तो पुलिस वाले हैं। हम कोई आम लोग नहीं।” दूसरा हंसी उड़ाकर बोला, “हां हां, अरे देख मनोज, यह तो बड़ी फिल्मी बातें कर रही है। अगर फिल्मों में होती तो अभी तक बड़ी हीरोइन बन चुकी होती।”

लेकिन आयशा कुरैशी जानती थीं कि यह वक्त हंसने या डरने का नहीं है। उन्होंने अपनी आवाज को और बुलंद किया। लहजे में फौलाद भर लिया और कहा, “बस तुम दोनों भूल रहे हो कि तुम किसके सामने खड़े हो। यह मेरा आखिरी इंतबाह है। अपनी हद में रहो वरना याद रखो, नौकरी तो खो ही दोगे। लेकिन इस जेल में इन्हीं औरतों के साथ खड़े मिले होंगे जिन्हें तुमने सताया है। और वो दिन तुम्हारा सबसे बुरा दिन होगा।”

यह अल्फाज बिजली की कड़क की तरह कमरे में गूंजे। दोनों दरोगा के चेहरे पर पहली बार खौफ के आसार नजर आए। उनके कदम डगमगाने लगे। सांसे भारी हो गईं। उन्हें एहसास हो गया कि सामने खड़ी यह औरत कोई कमजोर कैदी नहीं, बल्कि वह ताकत है जिसे दबाना नामुमकिन है।

आयशा का शिनाख्ती पास

आयशा ने पूरे एतमाद के साथ अपनी जेब से एक शिनाख्ती पास निकाला। पास पर उनका नाम, ओहदा और पूरी सर्विस की तफसीलात दर्ज थी। जैसे ही मनोज और रमेश ने वह देखा, वह फौरन घुटने टेक कर उनके कदमों में गिर गए।

दोनों एक साथ बोले, “मैडम, हमें माफ कर दीजिए। हमने आपको पहचाना नहीं। हमसे भारी गलती हो गई। ऐसी शख्सियत हमने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखी।” आयशा ने एक गहरी सांस ली और धीरे से कहा, “मैं तुम्हें माफ कर सकती हूं। मगर एक शर्त पर: तुम्हें सच का साथ देना होगा। अगर तुम मेरा साथ दोगे तो तुम बच सकते हो। वरना तुम भी इन्हीं दरिंदों की सफ में खड़े हो जाओगे जिन्हें मैं कभी नहीं छोडूंगी।”

मनोज और रमेश का साथ

मनोज और रमेश फौरन सर झुका कर बोले, “जी मैडम, हम आपके साथ हैं। आप जो कहेंगी हम वही करेंगे।” आयशा ने उन दोनों की आंखों में झांका जैसे परख रही हो कि यह झूठ तो नहीं बोल रहे। फिर धीरे से कहा, “तो फिर सच बताओ। हर रात जब यह जेल अंधेरे में डूब जाती है, दरवाजे बंद हो जाते हैं, तो इन बेबस औरतों के साथ क्या होता है?”

कमरे में एक लम्हे को खामोशी छा गई। फिर दोनों ने भारी दिल से वह राज खोलना शुरू किया जिसने पूरे निजाम का भयानक चेहरा बेनकाब कर देना था।

खौफनाक सच

मनोज और रमेश एक दूसरे को देखते हुए चंद लम्हे खामोश खड़े रहे। उनके चेहरों पर खौफ और पसीने की मिलीजुली लकीरें उभर रही थीं। फिर जैसे बंद लबों से झड़ टपका हो। उन्होंने एक-एक करके वह सब कुछ उगल दिया जो आयशा ने सुनने की तवकको भी नहीं की थी।

रात के अंधेरे में किस तरह औरतों को उनकी कोठरियों से निकाला जाता है। किस तरह वर्दी पहनने वाले ही मुहाफिज नहीं, बल्कि दरिंदे बन जाते हैं। किस तरह जिस्मानी और जहनी इस्तहसाल के वह मंजर होते हैं जिन्हें बयान करते हुए भी रूह कांप उठे और किस तरह यह सब आला अफसरों की मिलीभगत से छुपाया जाता है।

फाइलों में झूठी रिपोर्टें भरकर सब कुछ दबा दिया जाता है। आयशा कुरैशी का चेहरा गुस्से से सुर्ख हो गया। उनकी आंखों में वह आग भड़कने लगी जिससे बड़े-बड़े जुर्म पेशा कांप जाते थे। अब उन्हें यकीन हो गया कि शामू जेल का किचन असिस्टेंट ने जो बताया था वह कोई अफवाह नहीं, बल्कि नंगी सच्चाई है।

सच्चाई का सामना

उन्होंने जेब से एक छोटा सा वीडियो कैमरा और माइक निकाला और दोनों दरोगाओं की तरफ बढ़ाते हुए फलादी लहजे में कहा, “यह अपने पास रखो। आज से हर पल हर लम्हा रिकॉर्ड होगा। जो कुछ भी यह अंधेर नगरी में होता है, वह सब दुनिया के सामने लाना है।”

मनोज और रमेश हिचकिचाए। उनके हाथ लरज गए। लेकिन आयशा ने उनकी आंखों में झांक कर एतमाद भरा। “डरने की जरूरत नहीं। तुम दोनों नए हो। तुम्हारा दामन अभी साफ है। अगर आज तुम सच का साथ दोगे तो कल तुम्हारा जमीर तुम्हें सलाम करेगा।”

दोनों ने हैरानी से पूछा, “मैडम, आपने हमें इतनी बारीकी से कैसे पहचाना?” आयशा हल्की मुस्कुराहट के साथ बोली, “जब भी मैं किसी मिशन पर आती हूं, दुश्मन के साथ-साथ अपने साथियों की भी पूरी खबर रखती हूं। तुम्हारे नाम, पहचान, यहां तक कि तुम्हारे घर वालों तक की तफसील मेरे पास है।”

मिशन का आरंभ

अब मनोज और रमेश पूरी तरह आयशा के साथ थे। वो कैमरा और माइक लेकर जेल के उन स्याह हिस्सों में पहुंचे जहां रात डूबते ही इंसानियत को नोचा जाता था। उन्होंने सब कुछ कैद कर लिया। कैदी औरतों की दबी चीखें, दरिंदा सिफतवर्दी वालों की हंसी, उनके बेहूदा मुकालमें और वो जुल्म जो बरसों से छुपा हुआ था।

सुबह होने से पहले आयशा खामोशी के साथ जेल से बाहर निकल आईं। किसी को कानों कान खबर ना हुई। अगली सुबह हेड क्वार्टर के कॉन्फ्रेंस हॉल में जब उन्होंने वो वीडियो सबूत पेश किए तो पूरे महकमे में सन्नाटा छा गया। बड़े से बड़ा अफसर सख्त में आ गया।

सच्चाई का खुलासा

फौरन एक स्पेशल टीम बनी। रात के अंधेरे में जुल्म करने वाले वर्दीपश उसी दिनंगे हाथों पकड़े गए। उनकी वर्दी उतरवा दी गई। नौकरियां खत्म कर दी गईं और दर्जनों मुकदमे दर्ज कर लिए गए। आयशा कुरैशी का यह कदम पूरे पटना पुलिस डिपार्टमेंट में गूंज उठा। वो एक मिसाल बन गईं कि अगर इरादा पक्का हो तो सबसे ताकतवर निजाम को भी हिला कर रख दिया जा सकता है।

कैदी औरतें दौड़ती हुई आईं। उनके कदमों में गिर गईं। आंखों में आंसू और लबों पर शुक्रिया। “मैडम, आपने हमें जहन्नुम से निकाला है। हम बरसों से चीखते रहे। कोई नहीं सुन रहा था। लेकिन आज हमें इंसाफ मिला।”

आयशा का साहस

उसी लम्हे एक आला अफसर भी आगे बढ़ा। उसने आयशा के सामने झुक कर कहा, “मैडम, आपने वो कर दिखाया जो आज तक कोई नहीं कर सका।”

आयशा ने मुस्कुराते हुए कहा, “यह मेरी जीत नहीं, बल्कि उन सबकी जीत है जो आज भी खामोशी में जी रहे हैं। हमें आगे बढ़कर उनकी मदद करनी होगी।”

समापन

इस घटना ने पटना की पुलिस व्यवस्था में एक नई रोशनी भर दी। आयशा कुरैशी ने साबित कर दिया कि सच्चाई और इंसाफ के लिए लड़ाई कभी भी हार नहीं सकती। उन्होंने न केवल अपने पद का सम्मान बढ़ाया, बल्कि एक नई मिसाल कायम की कि अगर किसी में हिम्मत हो, तो वह किसी भी हालात को बदल सकता है।

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