कहते हैं वक्त बदल जाए तो रिश्ता भी अजनबी सा लगने लगता है। पर कोई बेटा इतना बदल सकता है कि अपने बाप की अंतिम सांसों तक से नफरत कर बैठे। यह कहानी है उस बेटे की जिसने अपने पिता की आवाज सुनना तक छोड़ दिया था। और एक दिन गांव में रह रहे पिता ने बेटे के आने की आस में तड़प-तड़प कर हमेशा के लिए आंखें मूंद ली। और जब इकलौते बेटे को खबर मिली तो भी अंतिम संस्कार में जाने से इंकार कर दिया। और सिर्फ इतना कहा अभी मेरे पास इतना वक्त नहीं है। आखिरकार एक बेटा इतना निर्दयी कैसे हो सकता है? पूरी सच जानने के लिए वीडियो को आखिर तक
जरूर देखें क्योंकि आगे जो होने वाला है और जो सच सामने आएगा वह हर उस बेटे के लिए एक आईना है जो कभी बाप की वजह से सफलता पाकर बड़े शहर में बसने के बाद गांव में रह रहे बूढ़े मां-बाप और उनकी बीमारी से नफरत कर बैठता है। लेकिन कहानी में आगे बढ़ने से पहले वीडियो पर लाइक करें। चैनल को सब्सक्राइब करें और कमेंट में अपना और अपने शहर का नाम जरूर लिखें। दोस्तों, गांव से जाकर दिल्ली में बस चुका राघव। सुबह-सुबह अपने ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था। चेहरे पर वही रूटीन वाला भाव। ना किसी चिंता की लकीर, ना किसी रिश्ते का बोझ। तभी उसकी पत्नी प्रिया कमरे में आई। आंखों
में चिंता, हाथ में मोबाइल। प्रिया ने धीमी मगर गंभीर आवाज में कहा। राघव आज सुबह बड़े पापा का तीसरी बार फोन आया है। कह रहे हैं तुम्हारे बाबूजी की तबीयत अब बेहद नाजुक है। कम से कम बात तो कर लो उनसे। क्या हो गया है तुम्हें? राघव ने कोई जवाब नहीं दिया। बस एक ठंडी नजर प्रिया पर डाली और बिना एक शब्द बोले बैग उठाकर ऑफिस निकल गया। प्रिया कुछ देर दरवाजे की ओर देखती रही। फिर धीमे से सिर झुका लिया। शाम को जब राघव लौटा तो प्रिया उसकी चाय बनाते वक्त भी खामोश रही। तभी लैंडलाइन की घंटी बजी। राघव ने फोन उठाया। दूसरी तरफ से आवाज थी बड़े पापा की।
उन्होंने थकी हुई आवाज में कहा। बेटा अब तुम्हारे बाबूजी ज्यादा वक्त के मेहमान नहीं है। अगर आखिरी बार मिलना है तो लौट आओ। राघव ने सपाट स्वर में जवाब दिया। बड़े पापा अभी छुट्टी नहीं है। आप लोग देख लीजिए। फोन रख दिया। जैसे ही मुड़ा प्रिया पीछे खड़ी थी। उसने सब सुन लिया था। प्रिया ने रोश में कहा। मैंने दुनिया में ऐसा पहला बेटा देखा है जो अपने बाप की अंतिम सांसे भी अनदेखी कर देता है। अगर बहू ऐसा करे तो लोग उंगली उठाते हैं। लेकिन यहां तो बेटा ही। राघव ने कुछ नहीं कहा। बस चाय का कप उठाया और बालकनी में चला गया। प्रिया की आंखों में आंसू थे।
लेकिन उसके सवाल अब सुलगने लगे थे। रात हुई। सन्नाटे भरे खाने के बाद दोनों सो गए। सुबह फिर वही कॉल। इस बार बड़े पापा की आवाज कांप रही थी। राघव बेटा बाबूजी अब नहीं रहे। तू आ रहा है ना? राघव बोला मुझे पहुंचने में वक्त लगेगा। आप लोग क्रियाक्रम शुरू करवा दीजिए। बड़े पापा ने रुंध आवाज में कहा, लेकिन बेटा तुम तो इकलौते हो। तुम्हारे बिना अग्नि संस्कार कैसे हो? राघव ने ठंडेपन से जवाब दिया। जब मां गई थी तब किसने अग्नि दी थी? बड़े पापा फोन कट गया। प्रिया की आंखों से इस बार आंसू नहीं। बल्कि सवाल टपक पड़े। प्रिया ने दृढ़ स्वर में कहा। ठीक है। अगर
तुम नहीं जाओगे तो मैं अपने बेटे को लेकर गांव जाऊंगी। कम से कम किसी को तो अपना फर्ज निभाना होगा। वो टिकट बुक करने लगी। राघव कुछ देर चुप रहा। फिर अंदर गया और चुपचाप बैग निकालकर गांव जाने की तैयारी करने लगा। जब तक दोनों गांव पहुंचे। बाबूजी पंचतत्व में विलीन हो चुके थे। राघव ने क्रियाक्रम की बची रस्में निभाई। पर गांव वालों की आंखों में सवाल और कानों में फुसफुसाहटें थी। बेटा आया तो सही पर अब बहुत देर हो गई। लेकिन प्रिया के लिए यह कहानी यही खत्म नहीं थी। अब उसके मन में एक ही सवाल था। राघव अपने पिता से इतना कट क्यों गया था? इतना सन्नाटा क्यों
था उनके रिश्ते में? क्रियाक्रम के बाद मेहमान लौट चुके थे। घर का आंगन अब खाली था। और उस खालीपन में प्रिया के दिल के सवाल और भी जोर से गूंज रहे थे। बड़े पापा और बड़ी मां घर में रुके हुए थे। रात का वक्त था। सारे रिश्तेदार जा चुके थे। प्रिया ने सोचा अब पूछना ही होगा। अगर मैंने अभी नहीं जाना तो राघव का दर्द शायद कभी समझ नहीं पाऊंगी। वो दूध का गिलास लेकर धीरे-धीरे बड़ी मां के कमरे में गई। कमरे में पीली रोशनी थी। बड़ी मां लेटी थी। आंखें बंद थी पर जाग रही थी। प्रिया ने धीरे से कहा, बड़ी मां, आज मैं आपको राघव की सौगंध देकर कुछ पूछना चाहती हूं।
सच सच बताइएगा। बड़ी मां चौकी मुस्कुराई और उठकर बैठ गई। उन्होंने कहा, “ऐसी क्या बात है बहू?” जिसके लिए तुझे सौगंध लेनी पड़ी? प्रिया ने लंबी सांस ली और बोली, राघव अपने बाबूजी से इतना अलग क्यों हो गया? इतनी नफरत क्यों है उसमें? बड़ी मां चुप हो गई। कुछ पल खामोशी रही। लेकिन प्रिया की आंखों में जो जिज्ञासा थी, उससे बड़ी मां नजरें नहीं चुरा सकी। तभी दरवाजे की आहट हुई। सामने से एक वृद्ध महिला कमरे में आई। गांव की सबसे बुजुर्ग दादी मां। दादी मां ने धीमे से कहा। बड़ी मां कुछ नहीं बोलेंगी बहू। मैं बोलती हूं। आखिर क्यों नफरत करता था राघव? अपने पिता से और
दादी मां ने बताना शुरू की और बोली जब से उसने होश संभाला है तब से उसने अपनी मां को सिर्फ तड़पते हुए देखा है। अपने बाप से हर रोज अपमानित होते हुए देखा है। प्रिया की आंखें खुली की खुली रह गई। वो बोली क्या? क्या हुआ था दादी मां? कौन थी राघव की मां? क्या उनका नाम शारदा था? दादी मां ने आंखें बंद की और बोली हां बहू शारदा एक सीधी साधी संस्कारी शांत लड़की बिना देखे शादी कर दी गई थी तुम्हारे ससुर महेश बाबू से दिल्ली में नौकरी करते थे वो और जब गांव बुलाकर शादी कर दी गई तो उन्हें लगा जैसे उनकी जिंदगी बर्बाद कर दी गई हो शादी
की रात घूंघट उठाकर उन्होंने देखा एक साधारण चेहरा सांवली रंगत बस आठ आठवीं पास लड़की उनकी पत्नी बन चुकी है और उसी रात बिना कुछ कहे वो दिल्ली लौट गए। प्रिया सुन्न रह गई। उसने फुसफुसाते हुए पूछा तो शारदा मां अकेली रह गई। दादी मां ने जवाब दिया अकेली वो तो ससुराल में परछाई बनकर रह गई। ना कोई हक ना कोई अधिकार। घर का सारा काम करती। घूंघट में ही रहती। बस हां या ना में जवाब देती। और उनके पति वह तो जैसे भूल ही गए थे कि उनका इस गांव में कोई रिश्ता भी है। दादी मां की आवाज में सेहरन थी और प्रिया की आंखों में पहली बार दर्द से जन्मी समझ। दादी मां की आंखें अब
कहीं अतीत में भटक रही थी। जैसे वह हर वो मंजर दोबारा जी रही थी। जो शारदा ने बिना आवाज के सह लिया था। उन्होंने कहना शुरू किया। शारदा के पति तुम्हारे ससुर महेश बाबू जब भी गांव से खच जाता बुलावा भेजा जाता। वह हर बार कोई बहाना बनाकर टाल देते। यहां तक कि अपने छोटे भाई रमेश की शादी में भी नहीं आए। तुम्हारे ससुर के पिता राघव के दादाजी हर दिन शारदा को देखकर खुद को दोष देते कि क्यों बिना बेटे की मर्जी के शादी कर दी। शारदा बिना कोई शिकायत किए घर के सारे काम करती। देवर की इज्जत करती और ससुर की सेवा करती। रमेश भी अपनी भाभी की इज्जत करता था। लेकिन सब कुछ
उसके हाथ में भी नहीं था। कभी-कभी शारदा को देखकर लोगों को लगता कि यह औरत अब टूट चुकी है। लेकिन उसकी आंखों में एक अजीब सी शांति होती थी। जैसे वो कह रही हो। मेरे दुख की कोई आवाज नहीं है। बस सहने का अभ्यास है। प्रिया धीरे से बोली। फिर दादाजी का क्या हुआ? दादी मां की आवाज टूट गई। अपने बेटे की बेरुखी और बहू की पीड़ा को सहते-सहते एक दिन वह भी इस दुनिया से चले गए। जब मौत की खबर महेश बाबू को भेजी गई तब वह गांव लौटे क्योंकि अंतिम संस्कार करना था और जमीन जायदाद की बात करनी थी। तब कुछ दिन रुकने के दौरान गांव वालों ने उन्हें बहुत समझाया। अब तो शारदा को अपना
लो। वह औरत बिना शिकायत के तुम्हारा इंतजार करती रही है। शायद समाज की नजरों से बचने के लिए। महेश बाबू ने कुछ दिन शारदा के कमरे में बिताए। शारदा को भी कुछ उम्मीद बंधी। उसने सोचा शायद अब उसकी जिंदगी बदल जाएगी। और फिर कुछ हफ्तों बाद वो मां बनने वाली थी। प्रिया की आंखें चमक उठी। उसने धीमे से पूछा। राघव दादी मां मुस्कुराई लेकिन आंखों में आंसू थे। हां, उसके जीवन का एकमात्र उजाला पर शारदा जानती थी कि वह प्रेम का नहीं। बस समाज की नजरों के डर का परिणाम था। फिर भी उसने राघव को जी जान से पाला। घर के काम भी, देवरानी के ताने भी और बेटे की परवरिश भी।
सब कुछ अकेले किया। लेकिन एक दिन ऐसा आया जिसने शारदा के जीवन से आखिरी उम्मीद भी छीन ली। प्रिया की सांसे थम सी गई। उसने सवाल भरी नजरों से देखा। दादी मां ने गहरी सांस लेते हुए कहा, राघव जब तीन साल का हुआ, महेश बाबू अचानक गावाए और बोले, मैं राघव को दिल्ली लेकर जा रहा हूं। दादी मां की आंखें अब बिल्कुल नम थी। लेकिन उनके लफ्ज अब भी उतने ही सधे हुए। उतने ही भारी। उन्होंने कहा महेश बाबू के मुंह से जब यह सुना कि वह राघव को दिल्ली लेकर जाएंगे तो जैसे शारदा की रूह का काम गई उसने रोते हुए कहा आप इसे मुझसे मत छीनिए यही तो मेरा एकमात्र सहारा है। इस बच्चे
के सहारे ही तो मैं सांस ले पाती हूं। आपको जो चाहिए मैं सब दूंगी। बस इसे मत ले जाइए। लेकिन महेश बाबू का दिल कभी पिता जैसा था ही नहीं। उन्होंने एक गुस्से में कहा, या तो यह बच्चा मेरे साथ आएगा या फिर इसे दुनिया से ही हटा दूंगा। यह सुनकर शारदा फूट-फूट कर रो पड़ी। बेटे को सीने से चिपका लिया। राघव भी डर के मारे मां की गोद में छुप गया। लेकिन महेश ने उसे जबरन खींचा और गोद में उठाकर चल पड़ा। शारदा गेट तक भागती आई। पर महेश ने पीछे तक नहीं देखा। वह बच्चा जो अपनी मां के चेहरे तक को नहीं भूला था। आज उसकी गोद से छीन लिया
गया। शारदा के जीवन का सबसे काला दिन वही था। वो दिन जब उसकी ममता हारी उसकी गोद उजड़ गई। उसके बाद क्या बचा था उसके पास? एक सुनसान कमरा, एक बंद खिड़की और हर रात एक अधूरी लोरी। उसने खाना छोड़ दिया। बोलना बंद कर दिया। कभी-कभी वह पुराने कपड़े उठाकर राघव की खुशबू ढूंढती थी और रात भर बस एक ही सवाल अपने मन में दोहराती रहती थी। क्या मैंने कुछ गलत किया था? उधर दिल्ली में राघव को यह बताया गया कि उसकी मां अब यही है। महेश की दूसरी पत्नी एक नई जिंदगी, एक झूठी पहचान और इस तरह राघव की असल मां हर दिन जिंदा रहकर भी अंदर ही अंदर मरती रही और फिर एक दिन खबर आई।
शारदा को कैंसर हो गया है। प्रिया के मुंह से एक ठंडी आ निकली। अब उसका दिल भारी हो गया था। आंखें रुक ही नहीं रही थी। दादी मां की आवाज अब धीमी पड़ने लगी थी। लेकिन उनकी बातों का असर और गहरा हो गया था। उन्होंने आगे कहा। जब शारदा को पता चला कि उसे कैंसर है तो उसने एक बात दोहराई। बार-बार हर किसी से हर दिन मुझे कुछ नहीं चाहिए। ना दवा ना सहानुभूति। बस एक बार मेरे बेटे को मेरे सामने लाकर खड़ा कर दो। बस एक बार उसके भाइयों ने बहुत समझाया। चल बहन तुझे अपने घर ले चलते हैं। लेकिन शारदा ने मना कर दिया। उसने कहा मैं पराई सही लेकिन ससुराल से सुहागन की तरह
ही विदा होना चाहती हूं। मेरे अंतिम दर्शन मेरे बेटे को ही करने हैं। बस जब रमेश बाबू यानी छोटे ताऊजी ने महेश को सारी बात बताई तो वह भी नहीं पसीजा। उसने साफ कह दिया ना मैं आऊंगा ना बच्चे को भेजूंगा। उस औरत से मेरा कोई रिश्ता नहीं है। प्रिया फफक पड़ी। बोली इतना कठोर कैसे हो सकता है कोई? दादी मां ने सिर झुका लिया और कहा फिर क्या था? रमेश बाबू, शारदा के भाई और गांव के कुछ लोग दिल्ली पहुंचे। महेश घर पर नहीं था। उसकी दूसरी पत्नी ने दरवाजा खोला। वो सब बिना रुके अंदर घुसे। चिल्लाकर राघव को बुलाया। छोटा सा बच्चा सामने आया। मासूम सीधा अपने में खोया।
राघव ने पूछा, “म्मी, यह लोग कौन है? क्यों चिल्ला रहे हैं?” रमेश बाबू ने उसे गले से लगाकर कहा, बेटा, तू जिसे मां कह रहा है, वो तेरी मां नहीं है। तेरी असली मां गांव में है, बीमार है। मरने से पहले तुझसे मिलना चाहती है। राघव कुछ नहीं समझ पाया। बस स्तब्ध होकर सबके चेहरे देखता रहा। फिर उसे गांव लाया गया। जब वह शारदा के कमरे में पहुंचा। वह बिस्तर पर लेटी थी। हड्डियों का ढांचा, सांसे डगमगाती पर आंखें खुली और उसके हंठ काम पे। उसने बस एक शब्द कहा। राघव, राघव को कुछ याद नहीं आ रहा था। पर आंखें भर आई। उसने मां का हाथ थामा। और जैसे दिल ने अंदर से कहा,
यही है मेरी मां। दादी मां की आंखों में पानी आ गया। उन्होंने कांपती आवाज में कहा। पर दुख की बात यह थी कि महेश वहां भी पहुंच गया और बोला, “मैं को एक पागल औरत के पास एक मिनट नहीं छोडूंगा।” कहते हुए राघव को फिर से खींच कर ले गया। शारदा ने बस एक ही वाक्य कहा। मेरी चिता को अग्नि मेरे बेटे से दिलवाना वरना मैं मुक्त नहीं हो पाऊंगी। और उसी रात शारदा ने अपनी आखिरी सांस ले ली। दादी मां अब एकदम चुप थी। कमरे में सन्नाटा था। लेकिन उस सन्नाटे में भी शारदा की आहें उसकी चुपी और उसकी टूटी हुई सांसे साफ सुनाई दे रही थी। प्रिया की आंखें लाल थी। चेहरा भीगा
हुआ था। उसने धीमे से कहा, दादी मां, राघव को पता चला यह सब। दादी मां ने सिर हिलाया। धीरे-धीरे समय के साथ हर बात उसके सामने खुलने लगी। उसे समझ आया कि जिसे वह अपनी मां मानता था। वो सिर्फ एक झूठी पहचान थी। उसे यह भी याद आने लगा कि कभी किसी घूंघट वाली औरत के सीने से चिपक कर वो जोर-जोर से रोया करता था। कभी कोई लोरी सुनाई देती थी। और फिर एक दिन सब कुछ छीन लिया गया। वह बड़ा हुआ। पढ़ाई की, नौकरी पाई। और दिल्ली जाकर तुमसे शादी की। लेकिन जब तुमने उससे उसके बाबूजी के बारे में सवाल किया तो वह चुप हो गया क्योंकि वो सिर्फ उनके नाम से घृणा करता था। तुम जानते हो
क्यों? क्योंकि उस बच्चे को जब पहली बार उसकी मां मिली। वो बिस्तर पर पड़ी थी। और उसके बाद कभी भी उसे अपनी मां की चिता को अग्नि देने का हक नहीं मिला। उसे उसकी मां का अंतिम स्पर्श उसकी उखड़ती सांसों के साथ मिला था। और इसीलिए जब महेश यानी उसके बाबूजी बीमार पड़े और गांव से फोन आया तो राघव ने सिर्फ एक बात कही। बाबूजी मैंने प्रिया को आपके बारे में कुछ नहीं बताया क्योंकि मैं नहीं चाहता कि उसकी नजर में आपकी इज्जत गिरे। लेकिन आप रोज-रोज मुझे फोन करके मेरे जख्मों को मत कुरे दिए। मेरे पास आपकी कोई याद नहीं है सिवाय मेरी
मां की टूटी हुई आंखों के। महेश बाबू वो सुनकर बस चुप रह गए और आज वह भी चले गए बिना बेटे की आंखों में देखे बिना बेटे के कंधे पर सिर रखे क्योंकि कुछ रिश्तों को तोड़ने में एक लम्हा लगता है। लेकिन जोड़ने में पूरी उम्र लग जाती है। अगले दिन सुबह प्रिया और राघव दिल्ली लौट आए। घर पहुंचते ही प्रिया ने राघव का हाथ पकड़ कर कहा, मुझे माफ कर दो राघव। मुझे नहीं पता था कि अम्मा जी ने इतना कुछ सहा और तुमने इतना सहा। मैंने तुम्हें भी कितना कुछ सुना दिया था। पर तुमने कभी कुछ नहीं कहा। राघव ने हल्की मुस्कान के साथ कहा। शब्द जब भीतर बहुत गहरे धन से हो। तो
आवाजें बेमतलब हो जाती है प्रिया। फिर वो उठा। अपनी अलमारी से मां की पुरानी तस्वीर निकाली। सजाकर दिया जलाया और दोनों हाथ जोड़कर कुछ देर तक उस तस्वीर को निहारता रहा। तस्वीर से मुस्कुराती शारदा देवी जैसे कह रही हो अब मैं चैन से हूं। बेटा तूने मुझे मेरा हक वापस दिला दिया। कमरे में शांति थी। लेकिन उस शांति में आज एक संतोष भी था। दोस्तों मां और पत्नी के बिना कोई रिश्ता मुकम्मल नहीं होता। राघव के पिता ने जो कभी किया था राघव के दादा और मां के साथ वही राघव ने भी अपने पिता के साथ किया। लेकिन अब सवाल आप सभी से राघव का फैसला सही था या गलत कमेंट में
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