इकलौते बेटे बहू ने बुजुर्ग मां को बेघर किया लेकिन मां ने जो किया पूरा घर हिल गया क्योंकि कभी-कभी जिंदगी हमें ऐसी जगह लाकर खड़ा कर देती है जहां अपना ही खून पराया लगने लगता है। जिस मां ने पति की शहादत के बाद अपनी पूरी जिंदगी बेटे की खुशियों पर लुटा दी। उसी मां को एक दिन समझ आया कि घर बदलने से ज्यादा खतरनाक दिल बदल जाना होता है। और फिर उस दिन जो हुआ उसने पूरे समाज को आईना दिखा दिया कि ममता झुक सकती है। लेकिन आत्मसम्मान कभी नहीं। दोस्तों, यह सच्ची कहानी प्रकाशपुरम नगर की है। एक शांत, सुंदर और आधुनिक शहर जहां ऊंची ऊंची इमारतों के बीच एक ऐसी मां रहती

थी। जिसके दिल की ऊंचाई किसी भी इमारत से बड़ी थी। उस मां का नाम था सौम्या जी। उम्र 60 साल पर हौसला आज भी 25 साल की युवती जैसा। चेहरे पर शांति का सूर्य और आंखों में संघर्षों की समुद्री गहराई। सौम्या जी की शादी अर्पण सिंह से हुई थी जो आर्मी में मेजर थे। उनकी शादी किसी फिल्म जैसी नहीं थी। लेकिन उसमें प्यार, त्याग और भरोसा सब कुछ था। एक छोटा सा क्वार्टर, दो जोड़ी कपड़े और तीन सपने। एक छोटा घर, एक खुशहाल परिवार और एक उज्जवल भविष्य। शादी के 2 साल बाद सौम्या जी को बेटा हुआ। अनिरुद्ध बस वही पल था जब सौम्या जी ने सोचा अब मेरी दुनिया पूरी हो

गई। लेकिन दोस्तों जिंदगी कभी भी किसी की खुशी को पूरी नहीं रहने देती। जब अनिरुद्ध 4 साल का हुआ तो एक सुबह फोन आया जिसे सुनकर सौम्या जी की जमीन खिसक गई। अर्पण सिंह देश की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। उस एक खबर ने सौम्या जी के जीवन को दो हिस्सों में बांट दिया। पहले वाला हिस्सा जिसमें पति का कंधा था और बाद वाला हिस्सा जिसमें सिर्फ जिम्मेदारियों का बोझ ससुराल शिवम कुंज एक बड़ा हवेली नुमा घर जहां अर्पण के माता-पिता उनका बड़ा भाई और भाभी रहते थे। लेकिन वहां सौम्या जी को बहू नहीं। बस एक बोझ की तरह देखा गया। उन्हें लगता था कि अर्पण की सरकारी सहायता राशि,

पेंशन और घर की जमीन सब उनकी होनी चाहिए। सौम्या जी को धीरे-धीरे यह महसूस होने लगा कि यह घर दीवारों से नहीं नजरों से छोटा होता जा रहा है। पर उन्होंने एक बात ठान ली थी। मैं टूटी नहीं हूं। बस झुकी हूं। और झुकना कमजोरी नहीं। बुद्धिमानी है। अनुकंपा पर उन्हें सरकारी प्राथमिक विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी मिल गई। अब वही स्कूल उनका परिवार था। अनिरुद्ध वही बच्चा था जिसके लिए वे अपनी सांसे बचा कर रखती थी। रात भर पढ़ाई और दिन भर नौकरी। लेकिन सौम्या जी ने कभी शिकायत नहीं की। समय बीतता गया। अनिरुद्ध बड़ा होता गया। उसके सपने भी बड़े होते गए।

अनिरुद्ध ने मेहनत से पढ़ाई की और अंत में मुंबई जैसे महानगर में सरकारी अधिकारी बन गया। यह सौम्या जी के लिए दुनिया का सबसे बड़ा गर्व था। प्रकाशपुरम नगर से शहर आना जाना मुश्किल था। इसलिए सौम्या जी ने अपनी पुश्तैनी जमीन बेचकर अनिरुद्ध के लिए सिग्नेचर हाइट्स सोसाइटी में तीन बेडरूम का फ्लैट खरीद दिया। जब बेटा सफल हुआ तो लड़कियों के रिश्तों की लाइन लगने लगी। पर सौम्या जी ने चुना किरण एक सुंदर पढ़ी लिखी आधुनिक और आत्मविश्वासी लड़की पहले कुछ महीने बहुत प्यारे रहे। किरण सौम्या जी को मां कहकर बुलाती थी। अनिरुद्ध भी अपनी मां का ख्याल रखता था। घर में हंसी,

रंग और अपनापन था। लेकिन दोस्तों खुशियों का समय जितनी जल्दी आता है उतनी ही जल्दी उसका असली चेहरा भी दिखने लगता है। कुछ महीनों बाद किरण का असली स्वभाव सामने आने लगा। शॉपिंग, पार्टियां, क्लब, योगा स्टूडियो, कैफे उसे बस यही सब पसंद था। घर की सादगी उसे गांव का माहौल लगती थी। और धीरे-धीरे उसने अनिरुद्ध के मन में भी जहर घोलना शुरू कर दिया। तुम्हारी मां बहुत पुराने विचारों की है। उन्हें हमारे स्टैंडर्ड के हिसाब से चलना चाहिए। इतना खर्चा करती है। फिर भी मदद नहीं करती। ऐसी बातें अनिरुद्ध रोज सुनता और रोज थोड़ा-थोड़ा बदलता जाता। जिस

बेटे के लिए सौम्या जी ने पूरी दुनिया छोड़ी थी। वही बेटा अब मां को एक जिम्मेदारी से ज्यादा कुछ नहीं समझता था। कई बार सौम्या जी कुछ कहना चाहती लेकिन उनकी बोली हमेशा दिल तक जाती थी। दिमाग तक नहीं। अनिरुद्ध सुनता भी नहीं था। बस सिर हिला देता। सौम्या जी जानती थी। समय बदल गया है। पर उन्होंने यह नहीं सोचा था कि रिश्तों की गर्माहट भी बदल जाएगी। फिर आया दिवाली का त्यौहार। वही त्यौहार जिसके लिए सौम्या जी साल भर से इंतजार करती थी। वह अपने हाथ से बने बेसन के लड्डू लेकर सुबह ट्रेन से सिग्नेचर हाइट्स पहुंची। दरवाजा किरण ने खोला। चेहरे पर एक औपचारिक सा

हावभाव। पर नजर में ना अपनापन था ना खुशी। अरे मम्मी जी आ गई। बता देती तो हम तैयारी कर लेते। शब्द सजावटी थे। मगर मन से निकल कर नहीं आए थे। जब सौम्या जी अंदर आई। उन्होंने देखा कि किरण के माता-पिता पहले से मौजूद थे। तीनों कमरों में सबसेट था। एक में अनिरुद्ध किरण। दूसरे में किरण के माता-पिता और तीसरे में होम थिएटर। मम्मी जी, आपको हॉल में ही एडजस्ट करना पड़ेगा। हमने फोल्डिंग बिछवा दी है। यह सुनकर सौम्या जी के भीतर कुछ टूट गया। पर चेहरे पर वही पुरानी मुस्कुराहट डालकर बोली, ठीक है बेटी, हॉल भी तो घर ही का हिस्सा है।

लेकिन दोस्तों, कभी-कभी घर का बड़ा हिस्सा भी दिल के छोटे हिस्सों में जगह नहीं बना पाता। उस रात सिग्नेचर हाइट्स में दियों की रोशनी थी। पटाखों की आवाज थी। मिठाइयों की खुशबू थी। पर हॉल के एक कोने में बैठी सौम्या जी के साथ। सिर्फ तन्हाई थी। और वह तन्हाई इतनी गहरी थी कि जैसे किसी ने दिवाली की रात उनके दिल पर अंधेरा पोत दिया हो। किरण अपने माता-पिता से हंसते हुए बातें कर रही थी। अनिरुद्ध घर की सजावट देखकर खुश हो रहा था। लेकिन उस घर में एक इंसान ऐसा भी था जिसकी खुशियां वहां कई गुम हो चुकी थी। सौम्या जी ने अपने छोटे से बैग में रखा। बेसन के लड्डू

का डब्बा खोला। उंगली से हल्के से लड्डू को छूकर बोली, “यह वही लड्डू है जो बचपन में खाकर तुम खुश हो जाते थे।” अनिरुद्ध, आज भी तुम्हें वही खुशी देने आई हूं बेटा। पर वह जानती थी आज के अनिरुद्ध को बच्चे वाला स्वाद नहीं। बल्कि समाज का दिखावा ज्यादा पसंद है। पूजा का समय हुआ। किरण ने अपनी मां को आगे बैठाया। अनिरुद्ध भी बिना सोचे वहीं बैठ गया। सौम्या जी थोड़ी देर तक खड़ी रही। फिर धीरे से पीछे बैठ गई। पूजा की घंटियां बज रही थी। पर सौम्या जी के भीतर एक मौन बज रहा था। एक ऐसा मौन जो किसी भी आवाज से ज्यादा दर्द देता है। जब

सब आरती कर रहे थे। किरण ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा कि उसकी सांस कहां बैठी है। अनिरुद्ध भी बस वही करता रहा जो उसे सही लग रहा था। बीवी खुश है तो सब ठीक है। आरती के बाद किरण अपनी मां के साथ सेल्फी ले रही थी। अनिरुद्ध पटाखे दिखा रहा था। लेकिन किसी ने नहीं देखा कि हॉल के कोने में बैठी सौम्या जी अपनी ही परछाई को पार करने की कोशिश कर रही थी। उस रात फोल्डिंग पर लेटकर सौम्या जी ने छत को देखा। मौन छत पर उनके जीवन की तस्वीरें उतरती गई। अनिरुद्ध का पहला कदम, पहली स्कूल यूनिफार्म, पहली सैलरी और आज पहली बार मां से दूरी। एक मां का दिल बहुत सह लेता है।

लेकिन जब वही दिल अपने ही बच्चों की वजह से आहत हो जाए तो वह दर्द किसी जख्म से भी गहरा होता है। अगली सुबह किरण अपनी मां के साथ चाय पी रही थी। अनिरुद्ध सोफे पर बैठकर ऑफिस की फाइलें खोल रहा था। घर में दिवाली का सुकून था। पर सौम्या जी के मन में एक तूफान उठ रहा था। धीरे-धीरे वह अनिरुद्ध के पास गई। उनकी चाल में थकान नहीं बल्कि एक निर्णय की दृढ़ता थी। बेटा थोड़ा बैठो। मुझे तुमसे बात करनी है। अनिरुद्ध ने आश्चर्य से उन्हें देखा। सौम्या जी ने बहुत शांत स्वर में कहा। अनिरुद्ध तुम्हें इस घर की असली कीमत कभी समझ ही नहीं आई। अनिरुद्ध अचकचा

गया। क्या मतलब है मां? तभी सौम्या जी की आवाज सालों के दर्द को चीरती हुई बाहर आई। जिस जमीन को बेचकर मैंने यह फ्लैट खरीदा था। वो तुम्हारे पिता की मेहनत उनके सपनों और मेरे त्याग की पहचान थी। मैंने अपनी सारी बचत, अपनी पुश्तैनी जमीन, अपने हिस्से का हक, सब कुछ तुम्हारे नाम कर दिया था। कभी यह सोच कर कि बुगापे में मेरा एक अपना घर होगा। जहां तुम मुझे सरखों पर बिठाओगे। अनिरुद्ध का चेहरा उतर गया। वह कुछ कहना चाहता था। पर शब्द दरीचे में अटक गए। सौम्या जी ने कहा पर अब मुझे साफ दिखाई दे रहा है बेटा। मां का सम्मान अगर बेटे की दया पर टिका हो तो वह सम्मान

नहीं। अपमान होता है। किरण और उसके माता-पिता सबके चेहरे सफेद पड़ चुके थे। सौम्या जी फोल्डिंग से अपना छोटा बैग उठाती है। बस वही बैग जिसमें उन्होंने दो जोड़ी कपड़े और बेसन के लड्डू रखे थे। मैं जा रही हूं बेटा। उनकी आवाज पत्थर की तरह दृढ़ थी। अब अपने लिए नहीं। अपने आत्मसम्मान के लिए। किरण ने घबराकर कहा मम्मी जी आप ऐसे कैसे? सौम्या जी ने हाथ उठाकर उसे रोक दिया। बेटी सम्मान वही दिया जाता है जहां उसकी कद्र हो। जहां कद्र ना हो वहां मां भी बोझ बन जाती है। और इतना कहकर वो दरवाजे की ओर बढ़ गई। अनिरुद्ध पीछे-पीछे आया। लेकिन सौम्या जी बिना

मुड़े बोली रुको अनिरुद्ध। आज मेरी पीठ पर जो बोझ है वह मेरा नहीं तुम्हारा है। लिफ्ट में जाते हुए उनकी आंखों में आंसू नहीं थे बल्कि एक दृढ़ निश्चय की चमक थी। शाम तक वो अपने पुराने गांव प्रकाशपुरम वापस पहुंच गई। उनका घर वही था। वही बरामदा वही अलमारी वही वो पुराना दरी वाला बिछौना। पर इस बार हवा में अपनापन था। कुछ दिनों बाद उन्होंने अपनी पुरानी लकड़ी की अलमारी खोली। उसमें से फाइलें निकाली। बैंक पेपर, जमीन की रसीदें और वह सारे दस्तावेज जो उन्होंने अनिरुद्ध के नाम करते समय विश्वास से साइन किए थे। उन्होंने चश्मा ठीक किया और एक-एक पन्ना

बहुत ध्यान से देखने लगी। उन्हें पता था अब समय आ गया है अपने हक को वापस लेने का। उन्होंने वकील विजय शर्मा को बुलाया। वह आए, फाइलें देखी और हैरानी से बोले, मां जी, आप टेंशन मत लें। यह पूरा फ्लैट कानूनी तौर पर आपका ही है। पेमेंट आपके अकाउंट से हुई है। मालिकाना हक आपका है। कानून आपके साथ खड़ा है। सौम्या जी ने गहरी सांस ली। मुझे बदला नहीं चाहिए बेटा। बस अपना हक वापस चाहिए। यह शब्द विजय शर्मा के दिल में ऐसे उतर गए जैसे कोई मां अपनी चुप्पी का पहाड़ ढहाकर दुनिया को बता रही हो कि वह टूटी नहीं। बस अब झुकने से इंकार कर चुकी है। विजय शर्मा ने फाइलें

संभालते हुए कहा मां जी आप बिल्कुल निश्चिंत रहिए। कानून बहुत साफ है। जिस खाते से पेमेंट हुई, जिस नाम से रजिस्ट्री हुई, फ्लैट के मालिक वही होते हैं। और वह हैं आप सौम्या जी। सौम्या जी हल्के से मुस्कुराई। वो मुस्कान जीत की नहीं थी। वो सालों बाद मिले आत्मसम्मान की मुस्कान थी। उन्होंने चाय का कप हाथ में लिया। कब की गर्मी उंगलियों तक उतरते ही उन्हें महसूस हुआ कि उनके भीतर एक नया सूरज उग रहा है। उन्होंने शांत स्वर में पूछा अब आगे क्या होगा बेटा? विजय ने तुरंत कहा सौम्या जी हमें एक लीगल नोटिस भेजना होगा। सिग्नेचर हाइट्स में जिसमें लिखा होगा कि यह फ्लैट

आपका है और आप अपने अधिकार की वापसी चाहती है। सौम्या जी कुछ पल चुप रही। आंखों के सामने अनिरुद्ध का बचपन तैर गया। उनका उंगली पकड़ कर चलना। रात में डरकर उनके आंचल में छिपना। पहली सैलरी लाकर उनके चरण छूना। उन्होंने आंखें बंद की और कहा नोटिस भेज दो बेटा। जिस बेटे ने मां को छोड़ दिया। उसे कम से कम यह तो पता चले कि मां अभी भी जिंदा है और मजबूत भी है। अगले ही दिन कूरियर बॉय सिग्नेचर हाइट्स के फ्लैट एक 304 के बाहर खड़ा था। दरवाजा किरण ने खोला। कूरियर उसके हाथ में थमाते हुए बोला, “मैडम, लीगल नोटिस। लीगल? किरण की आंखें फैल गई। चेहरे का रंग उड़ गया।

अनिरुद्ध ऑफिस से लौटा। तो उसने किरण को रोते पाया। क्या हुआ? किरण ने नोटिस उसकी ओर फेंकते हुए कहा, देखो तुम्हारी मां जी ने हमें लीगल नोटिस भेजा है। फ्लैट पर उनका हक बता रही है। अनिरुद्ध के हाथ कांपने लगे। उसने नोटिस खोला। हर शब्द उसके दिल पर किसी भारी हथौड़े की तरह गिर रहा था। इस फ्लैट की संपूर्ण राशि मेरे बैंक खाते से दी गई है। रजिस्ट्री मेरे नाम है। मैं अपनी संपत्ति का पुनः अधिकार चाहती हूं। सौम्या देवी अनिरुद्ध का मन हिल गया। वो सोफे पर बैठ गया। दोनों हाथों से सिर थाम कर किरण चिल्लाई। देखा मैं कहती थी ना तुम्हारी मां जी हमें फंसा देंगी। अब लोग

क्या कहेंगे? हमारा स्टेटस, हमारा नाम। अनिरुद्ध ने अचानक गुस्से में कहा, बस करो किरण। मेरी मां जी ऐसी नहीं है। वो कभी अपना हक ना मांगती। अगर हमने उन्हें तकलीफ ना दी होती। किरण अक रह गई। वो समझ नहीं पा रही थी कि क्या हो रहा है। अनिरुद्ध की आंखें मां की यादों से भीग चुकी थी। उसने दीवार पर लगी पुरानी फोटो देखी जिसमें छोटी उंगली मां की बड़ी उंगली पकड़े हुए थी। आज वही उंगली मां की पकड़ से फिसल गई थी। कुछ देर बाद वो कमरे में खुद को बंद करके रोता रहा। बिना आवाज के बिना आंसू पोछे बस पछतावे में टूटता हुआ। उधर किरण के माता-पिता अपना बैग पैक करने लगे।

उन्हें समझ आ चुका था। अब इस घर में शांति नहीं रहेगी। दूसरी ओर प्रकाशपुरम के शांत बरामदे में सौम्या जी लकड़ी की कुर्सी पर बैठी थी। हल्की धूप उनके चेहरे पर भी पड़ रही थी। जैसे जिंदगी उन पर नया उजाला बरसा रही हो। पड़ोस की बुजुर्ग महिलाएं उनके पास आई और बोली अरे सौम्या शहर से ऐसे वीरान चेहरों के साथ लौटी बहुत गलत हुआ तुम्हारे साथ सौम्या जी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा गलत नहीं बहन जरूरी हुआ कभी-कभी इंसान को अपनी इज्जत खुद भी बचानी पड़ती है। ममता का झुकना ठीक है। लेकिन आत्मसम्मान का टूटना नहीं। उन्होंने चाय का कप उठाया और बोली अब देखना आगे जो होगा

वह पूरे समाज को समझा देगा कि मां का दिल बड़ा हो सकता है लेकिन हक कभी छोटा नहीं होता तभी उनके फोन की स्क्रीन चमकी स्क्रीन पर नाम था अनिरुद्ध सौम्या जी की उंगलियां हल्का सा कांप गई दिल में पुरानी यादें जग उठीन लेकिन उन्होंने कंधे सीधा किया। आंखों की नमी पछी और कॉल रिसीव करने से पहले अपनी आवाज को मजबूत बना लिया। अब बात दिल से नहीं। सम्मान से होगी। उन्होंने फोन उठाया। फोन के उस पार से टूटी हुई आवाज आई। मां जी यह दो शब्द अनिरुद्ध ने बहुत धीमे कहे। लेकिन उन दो अक्षरों में पछतावे का भूकंप था। कुछ क्षण के लिए दोनों तरफ खामोशी छा गई। एक तरफ

बेटे की टूटती सासे और दूसरी तरफ मां का संभलता हुआ आत्मसम्मान। सौम्या जी ने शांत स्वर में कहा। हां बेटा बोलो। अनिरुद्ध की आवाज कांप रही थी। मां जी मैं मैं गलत था। बहुत गलत। आपने आप ही ने मुझे खड़ा किया और मैं ही आपको गिराता रहा। शब्द रुककरुक कर निकल रहे थे जैसे हर वाक्य अपने साथ एक नया बोझ लेकर आ रहा हो। सौम्या जी ने आंखें बंद की। दिल में पुराने जख्म फिर उभर आए। लेकिन उन्होंने खुद को संभाला। बेटा रो मत। मैंने तुम्हें माफ कर दिया है। यह सुनकर अनिरुद्ध और रो पड़ा। मां जी मैं आपको लेने आना चाहता हूं। आपके बिना यह घर नहीं रहा मां जी। आपने

नोटिस क्यों भेजा? क्यों? सौम्या जी का स्वर इतना शांत और दृढ़ था कि जैसे हवा भी ठहर गई हो। बेटा नोटिस तुम्हारे लिए नहीं था। तुम्हारी सोच के लिए था। तुम्हें याद दिलाने के लिए कि मां का दिल बड़ा होता है। लेकिन मां का हक उससे भी बड़ा होता है। और जब कोई अपने हक से भी हाथ धो बैठता है तो उसे जगाना पड़ता है बेटा इसलिए भेजा था। फोन के उस तरफ अनिरुद्ध कुछ सेकंड तक बोल नहीं पाया। उसके दिल में जो भारीपन था वो पहली बार बाहर निकल रहा था। कुछ क्षण बाद उसने कहा मां जी एक बार घर लौट आइए। किरण भी पछता रही है। वो आज रोते हुए कह

रही थी। मैंने मां जी को कभी समझा ही नहीं। मां जी हम दोनों बदल गए हैं। कृपया एक बार मौका दीजिए। सौम्या जी हंसी नहीं। बस हल्के से मुस्कुराई। यह मुस्कान ममता की नहीं। परी खुदा की थी। ठीक है बेटा। मैं सोचूंगी फैसला जल्दबाजी में नहीं किया जाता। समय के साथ ही सही राहत दिखाई देती है। अनिरुद्ध ने विनती भरे स्वर में कहा मैं कल ही प्रकाशपुरम आ रहा हूं। आपसे मिलने। सौम्या जी ने धीरे से कहा, आ जाओ बेटा। मिलने में क्या रोग है? बस एक बात याद रखना। मैं बदल गई हूं। अब मैं वही सौम्या नहीं हूं। जो हर बात पर झुक जाती थी। अब मैं अपने

सम्मान के साथ बैठती हूं। अनिरुद्ध कुछ नहीं बोला। बस उसकी सिसकियां सुनाई देती रही। अगले दिन प्रकाशपुरम के उसी स्कूल के बाहर एक काली कार आकर रुकी। बच्चे उत्साह से बोले, मैडम जी कोई बड़े साहब आए हैं। आपसे मिलने सौम्या जी बरामदे में खड़ी थी। धीरे-धीरे कार का दरवाजा खुला और उतरा अनिरुद्ध। चेहरा थका हुआ। आंखों में नमी, हाथों में मिठाई का डब्बा और एक थैली। वो आगे बढ़ा। धीमे से कहा मां जी मैं आपको लेने आया हूं। सौम्या जी ने उसे गौर से देखा। पहली बार उन्हें लगा। कही अंदर से वह वही छोटा अनिरुद्ध है जो कभी डरकर उनके आंचल में

छिपता था। उन्होंने शांत स्वर में कहा घर तो हमेशा से था बेटा बस तुमने जमीन मजबूत छोड़ दी थी और दीवारें कमजोर बना दी थी। अनिरुद्ध की आंखों से आंसू ब निकले। मां जी मैंने सब खो दिया। अपनी शांति अपना गर्व और सबसे दर्द की बात आपका विश्वास उसी समय किरण कार से उतरी चेहरा शर्म से झुका हुआ धीमे से बोली मां जी मैंने आपकी जगह नहीं समझी मैं बहू बनकर नहीं घर की मालकिन बनकर रही मां जी मुझे माफ कर दीजिए सौम्या जी ने उसे देखा उनकी आंखों में कठोरता नहीं थी बस अनुभव की चमक थी। किरण गलती करना बुरा नहीं होता। गलती पर अड़े रहना बुरा होता है। अगर तुम सच में बदलना

चाहती हो तो घर पहले दिल में बनाओ। कमरों में नहीं। किरण रोते हुए उनके पैरों में बैठ गई। अनिरुद्ध ने मां के हाथ पकड़ लिए। तीनों एक पल के लिए बस खामोश खड़े रहे। उस खामोशी में पिछले सारे तकरार। सारी गलतफहमियां धीमे-धीमे खामोश होकर विलीन होती चली गई। कुछ दिनों बाद सिग्नेचर हाइट्स की वही सोसाइटी जहां कभी सौम्या जी के लिए जगह नहीं थी। आज फूलों से सज गई जब वे गेट पर उतरी। किरण ने आरती की थाली लेकर उनका स्वागत किया। मां जी अब यह घर सच में आपका है। अनिरुद्ध ने धीरे से कहा मां जी इस बार हम दीवार नहीं दिल मजबूत करेंगे। सौम्या जी घर में दाखिल हुई। जहां कभी

उन्हें हॉल में फोल्डिंग पर सुलाया गया था। आज वही हॉल फूलों और रोशनी से भरा था। वो मुस्कुराई। एक गहरी सच्ची आत्मा को हल्की कर देने वाली मुस्कान। रात को दीपक जलाते हुए उन्होंने मन ही मन कहा हे प्रभु इस बार दिया बाहर नहीं भीतर जलाया है ताकि यह रोशनी अब कभी ना बुझे दोस्तों कभी-कभी घर टूटा नहीं होता बस दिल थक गए होते हैं और जब दिल ठीक हो जाए और मां का आत्मसम्मान लौट आए तो वही घर फिर से स्वर्ग बन जाता है। लेकिन दोस्तों बताइए क्या एक मां का आत्मसम्मान उसके अपने ही बच्चे की ख्वाहिशों से छोटा होना चाहिए अगर आप सौम्या जी की जगह होते क्या आप भी

अपने हक के लिए इस तरह खड़े होते और सौम्या जी का जो फैसला था सही था या गलत कमेंट में जरूर लिखिए क्योंकि आपकी सोच किसी की जिंदगी बदल सकती है और अगर इस कहानी ने आपके दिल को छुआ हो तो इस वीडियो और हमारे चैनल चैनल स्टोरी बाय आरके को लाइक, सब्सक्राइब और शेयर जरूर करें। फिर मिलेंगे एक नई भावनात्मक कहानी के साथ। तब तक खुश रहिए, स्वस्थ रहिए और अपने मां-बाप को समय दीजिए। जय हिंद जय