ऑर्डर देने पहुंचा डिलीवरी बॉय। दरवाजा खुला तो सामने उसकी तलाकशुदा पत्नी थी। फिर जो हुआ इंसानियत रो पड़ी। दोस्तों, बारिश की बूंदे पूरे शहर को जैसे किसी उदासी भरी चादर में लपेट रही थी। सड़कें खाली, हवा ठंडी और धुंध ऐसी कि दूर तक कुछ साफ दिखता ही नहीं था। इसी शाम उसी ठंडी हवा को चीरते हुए एक पुरानी सी बाइक चलाता हुआ एक पतला दुबला लड़का तेजी से आगे बढ़ रहा था। नाम था अंशुल हरे रंग की रेनकोट जैकेट पीठ पर गीला बैग। हाथों में भले ही डिलीवरी का पैकेट था पर दिल में ना जाने कितने अनकहे दर्द भरे थे। जिंदगी को उसकी इन चालों की आदत हो चुकी थी। कभी उम्मीद
देकर तो कभी उम्मीद छीनकर उसे वही गिरा देती थी। जहां से उसने चलना शुरू किया था। कभी कॉलेज में टॉपर था, हर इंटरव्यू में चमकने वाला पर एक गलती, एक गलतफहमी और कुछ बुरे वक्त ने उसकी जिंदगी को ऐसे पलटा कि वो आज यहां था। बाइक से खाना पहुंचाने वाला एक साधारण डिलीवरी बॉय। पर आज उसकी हालत उससे भी बदतर थी। क्योंकि वह पिछले दो दिनों से तेज बुखार में काम कर रहा था। घर का किराया, मां की दवाइयां, बाइक की ईएमआई रुकने का कोई हक ही नहीं था उसके पास। मोबाइल पर रिंग बजी। ऑर्डर 486, स्काईलाइन टावर, ब्लॉक बी, अर्जेंट डिलीवरी। उसने गहरी सांस ली। हेलमेट ठीक
किया और बारिश की बूंदे चेहरे से पोंछते हुए आगे बढ़ गया। स्काईलाइन टावर। यह नाम सुनते ही मन में एक अजीब सी टीस उठती थी। क्योंकि यह वही इलाका था जहां कभी वो और उसकी पत्नी अनुजा सपने लेकर आए थे। किराए का छोटा कमरा, खिड़की से आती ठंडी हवा और शाम की चाय। वहीं मामूली चीजें उनके लिए दुनिया भर की खुशियां हुआ करती थी। लेकिन सपनों की उम्र कम थी। नौकरी नहीं मिली। घर में लड़ाईयां बढ़ी। गलतफहमियां गहराती गई। दोनों टूटते रहे और एक दिन वह भी हो गया जो कभी उन्होंने सोचा नहीं था। तलाक सिर्फ कागज पर रिश्ता टूटा था। पर हकीकत में
दोनों का दिल कहीं ना कहीं अधूरा ही पड़ा था। वाहन पार्किंग में बाइक खड़ी करते समय उसका हाथ हल्का सा कांप गया। काम है बस। यादी क्यों दिमाग में आ रही है? वो खुद से बुदबुदाया। बारिश का पानी उसके जूते में भरता रहा। पर वह धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ता हुआ ब्लॉक बी की ओर बढ़ा। हाथ में पैकेट, आंखों में वही खालीपन और दिल में अजीब सी बेचैनी। फ्लैट नंबर 204 घंटी के पास खड़े होते ही उसके कदम ठिटक गए। किसी वजह से दिल जोर से धड़क रहा था। उसने खुद को संभाला। सिर्फ डिलीवरी है। काम करो और आगे बढ़ जाओ। उसने घंटी बजाई। दरवाजे के पीछे
से धीमी सी चप्पलों की आवाज आई। लैच खुला। दरवाजा धीरे-धीरे उसकी ओर आया और अगले ही पल समय जैसे रुक गया। सामने खड़ी थी अनुजा, वही चेहरा, वही आंखें, वही फीका सा चेहरा जिसमें कितनी ही थकान और कमजोरी साफ नजर आ रही थी। बस फर्क इतना था कि आंखों में अब खुशियों की चमक नहीं थी और चेहरे पर वही मुस्कान भी नहीं जिसे वह कभी दुनिया में सबसे ज्यादा पसंद करता था। अनुजा भी उसे देखकर ठिटक गई। उसके हाथ में पानी का गिलास था। शायद किसी दवाई के साथ लेने जा रही थी। गिलास हल्का सा हिल गया। उसके होठों से धीमी सी आवाज निकली। अंशुल उन दोनों के बीच कुछ सेकंड का
सन्नाटा ऐसा था जैसे दुनिया थम गई हो। अंशुल का मन हुआ कि कुछ बोल दे। कैसे हो? या तुम यहां कैसे? पर उसने कुछ नहीं कहा। उसकी आवाज जैसे छाती में ही अटक गई थी। वो बस पैकेट आगे बढ़ाकर बोला। ऑर्डर आपका। अनुजा के कांपते उंगलियां पैकेट पकड़ते समय हल्की सी फिसल गई। शायद वह ठीक नहीं थी। उसकी सांसे भी थोड़ी तेज थी। अंशुल ने अचानक नोटिस किया। उसकी कलाई में दवाई की स्ट्रिप थी। टेबल पर बिल पड़े हुए थे और सोफे पर एक पतला सा कंबल। वो पूछना चाहता था। तुम ठीक हो? लेकिन मुंह से सिर्फ एक ही लाइन निकली। साइन चाहिए। अनुजा ने साइन
किया। पैकेट रखा और धीमी आवाज में बोली, धन्यवाद। अंशुल ने सिर झुका कर हल्की सी कही और मुड़कर जाने लगा। लेकिन जैसे ही वह दो कदम पीछे हटा। एक जोरदार धप की आवाज आई। वो झटके से मुड़ा। अनुजा जमीन पर गिर चुकी थी। उसके हाथ से दवा और पानी का गिलास दूर जा गिरा था। चेहरा बेहद पीला। सांसे धीमी और आंखें बंद। अंशुल का दिल जोर से धड़का। अनुजा उसने तुरंत दौड़कर उसे उठाया। हे भगवान यह बेहोश कैसे हो गई? उसके हाथ कांप रहे थे। वो उसे गोद में लेकर कमरे के अंदर ले गया। कमरा छोटा था। टूटी कुर्सी, बिखरे कपड़े और हवा में दवाई की गंध। वो उसका
सिर अपने घुटने पर रखकर हाफते हुए बोला, अनुजा, आंखें खोलो। प्लीज। पर वो बिल्कुल स्थिर पड़ी थी। अंशुल के गले में अजीब सी रुलाई भर आई। इतने महीनों बाद उसे देखकर वह टूटना नहीं चाहता था। पर आज सब कुछ जैसे बिखर रहा था। मुझे लगा था तुम ठीक हो। और तुम यहां इस हालत में हो। उसने धीमी आवाज में कहा। उसने उसका हाथ पकड़ा। वह बर्फ की तरह ठंडा था। अंशुल का दिल बैठ गया। मैं मैं डॉक्टर को बुलाता हूं। उसने कांपती उंगलियों से मोबाइल निकाला, नंबर मिलाया। पर स्क्रीन धुंधली सी दिख रही थी। जैसे आंसू और बारिश मिलकर सब कुछ धुंधला कर रहे हो। फोन लग गया। डॉक्टर ने कहा, 10
मिनट में आ रहा हूं। मरीज की नब्ज़ देखते रहिए। अंशुल वही फर्श पर घुटनों के बल बैठ गया। उसने धीरे से अनुजा की कलाई पकड़ी। नब्ज़ इतनी हल्की थी कि मानो हाथ से फिसल रही हो। कमरे की खिड़की आधी खुली थी। ठंडी हवा अंदर आ रही थी। पर हवा में भी अकेलापन घुला हुआ था। दीवार के कोने पर सड़ी हुई चाय का कप रखा था। जैसे पता नहीं कितने दिनों से उसने ठीक से कुछ खाया पिया नहीं था। अंशुल ने खुद को संभाला। उसके माथे पर ठंडा पानी लगाया और फटी आवाज में बोला, अनुजा प्लीज जागो। मैं यहां हूं। सुन रही हो ना? कोई जवाब नहीं। सिर्फ उसकी सांसों की धीमी टूटी सी आवाज। अंशु ने
कमरे में नजर दौड़ाई। दवाई के स्ट्रिप्स, किराया नोटिस, बिजली का बिल और एक पुराना फोन जो शायद कई दिनों से चार्ज भी नहीं हुआ था। उसकी आंखें भर आई। तुम्हारे साथ यह सब कब से चल रहा था। और तुमने एक बार भी नहीं बताया। होठों को काटकर उसने खुद को शांत करने की कोशिश की। पर आंसू उसके गालों से सरकते रहे। उसने उठकर पानी का गिलास भरा। पर जैसे ही वापस आया देखा अनुजा की पलकों में हल्की सी हरकत हुई। अनुजा वो उसके पास झुक गया। धीरे-धीरे उसने आंखें खोली। पर नजरें धुंधली थी। जैसे किसी ने उसकी दुनिया से रंग छीन लिया हो। उसने उसे पहचानने की कोशिश की।
अंशुल उस एक शब्द में जितना दर्द जितनी शिकायतें जितना अकेलापन छिपा था वो किसी तीर की तरह अंशुल के सीने में उतरता चला गया। हां मैं हूं। तुम बस लेट ही रहो। डॉक्टर आता ही होगा। अनुजा ने मुश्किल से पूछा। तुम यहां कैसे? अंशुल ने गहरी सांस ली। डिलीवरी लेकर आया था और तुम आगे के शब्द उसके गले में अटक गए। अनुजा की आंखें भर आई। वो बहुत धीमे स्वर में बोली तुम्हें ऐसा देखकर अच्छा नहीं लगता होगा। ना यह सवाल नहीं। उसके दिल का टूटा हुआ कोना था। अंशुल को लगा जैसे किसी ने उसका पूरा अतीत उसके सामने खड़ा कर दिया हो। वे झगड़े, वह बेरोजगारी, वो ना बोल पाने वाली
बातें और वह दिन जब वे कोर्ट से थक कर बाहर निकले थे और दोनों ने अलग-अलग दिशाओं में कदम बढ़ा दिए थे। वो फर्श पर उसके बगल में बैठ गया। अनुजा तुम्हारी हालत क्यों ऐसी है? खाना खाती हो ना? दवाइयां। अनुजा ने कमजोर सी हंसी-हंसी। दवा बहुत महंगी है। अंशुल और नौकरी उसकी आवाज बैठ गई। नौकरी चली गई, किराया बढ़ गया, बीमारियां बढ़ गई और मैं उसने गहरी सांस ली। मैं किसी को बोझ नहीं बनना चाहती थी। उसके शब्द पत्थरों जैसे थे। हर एक शब्द अंशुल के दिल पर गिर रहा था। वो खुद को रोक नहीं पाया। अनुजा हमें तलाक लेना पड़ा। पर इसका मतलब यह नहीं कि तुम अकेली हो। खुद को
इतना मत तोड़ो। अनुजा ने आंखें बंद कर ली। तुमसे क्या कहती? तुम खुद अपने जख्मों से लड़ रहे थे। मैं कैसे तुम्हें अपने जख्मों की जिम्मेदारी देती? अंशुल का दिल जैसे किसी ने मरोड़ दिया हो। तुमने समझा ही नहीं। मैं किसी भी चोट से लड़ सकता था। बस एक बात से नहीं। तुम्हारे दूर जाने से कमरा कुछ पल तक बिल्कुल खामोश रहा। सिर्फ बारिश की बूंदे खिड़की से टकरा रही थी। अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। डॉक्टर आ चुका था। डॉक्टर ने अंदर आते ही पूछा, “क्या हुआ था इन्हें?” अंशुल ने जल्दी-जल्दी बताया। इनकी सांस धीमी थी। बेहोश हो गई थी। शायद कई दिनों से ठीक से खाया नहीं।
दवाइयां नहीं ली। डॉक्टर ने अनुजा का ब्लड प्रेशर चेक किया। नब्ज़ देखी, दवाइयां लिखी और गंभीर आवाज में बोला। इनका शुगर लेवल बहुत नीचे चला गया है। देह में खून की कमी भी है, तनाव बहुत है, थकावट भी। अगर समय पर इनका ख्याल ना रखा गया तो हालत और बिगड़ सकती है। अंशुल जैसे किसी पत्थर में बदल गया। उसके चेहरे पर वही पश्चाताप था। वही दर्द, वही कशमकश जो वह महीनों दबाए हुए था। डॉक्टर ने जाते-जाते कहा, “इन इनके साथ कोई तो है ना।” अंशुल थोड़ा रुका। फिर धीमी आवाज में बोला, हां, मैं हूं। दरवाजा बंद होते ही कमरे में फिर वही शांत हवा फैल गई। अंशुल ने अनुजा को कंबल
ओढ़ाया और उसके पास चुपचाप बैठ गया। कुछ देर बाद उसने धीमी आवाज में कहा, “मैं तुम्हें ऐसे अकेले नहीं छोड़ सकता। तुम्हें इलाज चाहिए, खाना चाहिए और आराम। हमारी शादी खत्म हो गई। इसका मतलब यह नहीं कि इंसानियत भी खत्म हो जाए। अनुजा की आंखों से आंसू ब निकले। वो बम मुश्किल बोली तुम्हें मेरी इतनी फिक्र क्यों? जबकि हम अंशुल ने उसकी बात काट दी। रिश्ते कागज से नहीं टूटते अनुजा और जो लोग एक दूसरे की तकलीफ समझते हैं वो दुश्मन नहीं बनते। वो उठकर रसोई की ओर गया। फ्रिज खोला। अंदर सिर्फ एक पानी की बोतल थी। कोने में एक सूखी रोटी और आधा प्याज रखा था। अंशुल के
अंदर कुछ टूट गया। उसने खुद से कहा, आज तक मैं सोचता था कि मैं टूटा हुआ आदमी हूं। पर असली दवाई की जरूरत तो इसे है। इस घर को है। इस जिंदगी को है। उसने गैस पर खिचड़ी चढ़ाई। वजनदार बर्तन उठाते समय उसके हाथ कांप रहे थे। शायद बुखार अभी भी था। लेकिन वह पसीने और दर्द को नजरअंदाज करता रहा। एक-एक दाना पकने तक वह वहीं खड़ा रहा। कमरा खिचड़ी की हल्की सी खुशबू से भर गया। उसने कटोरी में डालकर बिस्तर के पास लाकर रखा। अनुजा ने धीमी मुस्कान दी। तुम खिचड़ी अभी भी वैसे ही बनाते हो। अंशुल हंस नहीं पाया। उसकी आंखें भर आई। और तुम अभी भी जब थक जाती हो तो दाएं हाथ
से ना छूती हो। मैं तुम्हें इतना भूल भी नहीं सकता। चाहे जितनी दूर चली जाऊं। अनुजा चुप रही लेकिन उसकी आंखों में एक कृतज्ञता थी। एक दर्द था और एक एहसास कि शायद आज जो हो रहा है वो भगवान ने ही भेजा है। अंशुल उसके बगल में बैठकर बोला कल से मैं तुम्हारे साथ डॉक्टर के पास जाऊंगा। दवाइयां लाऊंगा और जब तक तुम ठीक नहीं हो जाती। मैं यहीं रहूंगा। अनुजा ने कांपती आवाज में कहा, अंशुल तुम्हें नहीं लगता लोग क्या सोचेंगे? अंशुल ने बिना हिचकिचाहट जवाब दिया, लोग क्या सोचेंगे? इससे ज्यादा जरूरी यह है कि तुम्हारी सांसे चलती रहे। कमरे की हवा में एक अजीब
सी गर्माहट फैल गई। वही दो लोग जो महीनों से एक दूसरे की ओर देखने की हिम्मत भी नहीं रखते थे। आज एक ही कमरे में एक दूसरे की धड़कनों से सहारा पा रहे थे। रात गहरी हो रही थी। खिड़की से बारिश बंद हो चुकी थी। पर दोनों की आंखों में बरसात अब भी बाकी थी। और इसी बारिश के बीच उनके टूटे रिश्ते की बर्फ पहली बार पिघलने लगी थी। पीछे बिस्तर पर लेटी अनुजा उसे चुपचाप देख रही थी। वो बोलना चाहती थी। बहुत कुछ कहना चाहती थी। पर गले में अटके शब्द बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उसने धीमे से पूछा अंशुल तुम वापस क्यों आए? डिलीवरी तो
दे चुके थे फिर भी रुक गए। अंशुल ने मुड़कर उसकी ओर देखा। आंखों में वही पुरानी चमक वही चिंता जो कभी उसे दुनिया का सबसे सुरक्षित इंसान महसूस कराती थी। वो फर्श पर बैठ गया। उसके बिस्तर से सटकर मैं कैसे चला जाता। अनुजा तुम गिर गई थी। तुम्हारी सांसे तेज थी। और सबसे बड़ी बात तुमने मदद मांगने के लिए किसी को फोन भी नहीं किया। अनुजा ने आंखें मोड़ ली। किसे करती अंशुल? दोस्त नौकरी जाते ही सब दूर हो गए। रिश्तेदार तलाक के बाद तो जैसे मैं उनके लिए बोझ बन गई। और तुम मैं कैसे तुम्हें फोन करती? वो वाक्य हवा में लटका रह गया। भारी टूटता हुआ अधूरा। अंशुल ने
उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया। तुम्हें अब किसी को भी खुद को बोझ समझने की जरूरत नहीं है। अनुजा की पलकों के कोने भीग गए। तलाक के बाद मैं रोज सोचती थी कि काश तुमने एक बार कह दिया होता कि रुको हम कोशिश करेंगे। शायद शायद बातें इतनी बिगड़ती ही नहीं। अंशुल ने धीरे से कहा। मैंने कहा था अनुजा बस तुमने सुना नहीं। मैं भी उस समय टूटा हुआ था। नौकरी का दबाव, घर वालों की उम्मीदें, तुम्हारी परेशानियां मुझसे अकेले संभाला नहीं गया। मैं हार गया था और तुम भी। कमरा कुछ सेकंड शांत रहा। फिर अंशुल ने धीरे-धीरे मास्क जैसा तनाव उतारते हुए कहा। लेकिन अब मैं
यह लड़ाई अकेले नहीं लड़ने दूंगा तुम्हें। अनुजा ने उसे देखा। वही व्यक्ति जिससे कभी उसने जीवन भर साथ निभाने की कसमें खाई थी। उसकी आंखों में नफरत का एक कतरा भी नहीं था। सिर्फ चिंता, अपनापन और एक अटूट जिम्मेदारी। मैं कल से काम पर नहीं जाऊंगा। अंशुल ने कहा, बस कुछ दिनों के लिए। जब तक तुम ठीक नहीं हो जाती। डॉक्टर ने कहा है आराम जरूरी है। मैं यहां रहकर तुम्हारी देखभाल करूंगा। नहीं, अनुजा ने तुरंत विरोध किया। तुम्हारी नौकरी, तुम्हारे डिलीवरी टाइमिंग, ईएमआई। मैं तुम्हारी वजह से कुछ नहीं बिगाड़ना चाहती। अंशुल मुस्कुराया। तुम्हारी वजह से अनुजा
तुम ही तो वजह थी कि मैं जिंदगी से लड़ता था। आज भी हो। उसके शब्दों का भार इतना गहरा था कि अनुजा ने आंखें बंद कर ली। जैसे दिल उसी पल भर आया हो। कुछ देर बाद जब उसने आंखें खोली। अंशुल खिचड़ी का दूसरा कटोरा लेकर आया था। थोड़ा और खा लो। दवा का असर तभी होगा। अनुजा ने कटोरा लेने से पहले उसका हाथ पकड़ लिया। सच बताओ अंशुल तुम क्या सोच रहे हो? वो चौका। क्या कहीं तुम्हें मेरे लिए? दुख तो नहीं हो रहा या यह सब सिर्फ इंसानियत में कर रहे हो? अंशुल ने गहरी सांस ली। इंसानियत में अगर करता तो शायद इतना दुख नहीं होता। इतनी बेचैनी नहीं होती। इतना डर नहीं लगता
कि तुम्हें कुछ हो जाएगा तो मैं कैसे जिऊंगा। अनुजा की आंखें भर आई। अंशुल मैं यह नहीं कह रहा कि सब पहले जैसा हो जाएगा। लेकिन यह जरूर कह रहा हूं कि मैं तुम्हें फिर से टूटने नहीं दूंगा। दोनों एक दूसरे की आंखों में देखते रहें। कुछ सेकंड, कुछ मिनट या शायद कुछ सालों की दूरी उस एक पल में मिट रही थी। खिड़की के बाहर बादलों की गड़गड़ाहट अब पूरी तरह थम चुकी थी। शहर सो रहा था। लेकिन इस छोटे से कमरे में दो दिल जाग रहे थे। एक दूसरे की धड़कनों को समझते हुए अंशुल उठकर कमरे की सफाई करने लगा। फर्श पर पड़ी दवाई के रैपर, उल्टे पड़े
कपड़े, धूल से भरी मेज। वह सब साफ करता रहा। अनुजा उसे देखती रही। इतने समय बाद तुम इस तरह मेरे कमरे को हाथ लगा रहे हो। वो मुस्कुराया। याद है शादी के बाद तुम कहती थी कि मुझे सफाई नहीं आती। मैं सब बिगाड़ देता हूं। अनुजा हल्का सा हंसी और तुम कहते थे कि तुम सिर्फ मेरी चीजें ठीक करना जानते हो। अंशुल ने उसके लिए ताजा पानी भरा। दवाइयां पास रखी और सोफे पर लेट कर कहा तुम सो जाओ। मैं यहीं हूं। कहीं नहीं जा रहा। अनुजा ने घबरा कर पूछा सच में तुम यहीं रुक रहे हो? हां, तुम्हारे अकेलेपन को आज छुट्टी मिल गई है। धीरे-धीरे अनुजा नींद में डूबने लगी। पर
नींद से पहले उसने एक आखिरी बात कही। अंशुल अगर उस दिन हम थोड़ा रुक जाते थोड़ा और बात कर लेते शायद यह सब नहीं होता। अंशुल ने धीमी आवाज में उत्तर दिया। शायद हां पर अब हमारे पास एक और मौका है। अनुजा इस बार हम किसी गलतफ हमी को बीच में नहीं आने देंगे। अनुजा आखिरकार सो गई। उसका चेहरा शांत था। पहली बार इतने महीनों बाद अंशुल सोफे पर लेटा तो था लेकिन सोया नहीं। वो उसे बार-बार देखता रहा। उसकी सांसे सुनता रहा। जैसे डर हो कि कहीं फिर कुछ हो ना जाए। रात धीरे-धीरे बीत गई। सुबह की हल्की धूप खिड़की से कमरे में आई। और उस रोशनी में अनुजा का चेहरा ऐसा लग
रहा था जैसे दर्द के बाद पहली बार किसी ने उसे छुआ हो। अंशुल ने उसके लिए नाश्ता बनाया, दवाइयां तैयार की और बाहर से फल ला दिया। वो वापस आया तो देखा अनुजा बैठने की कोशिश कर रही थी पर कमजोरी से फिर पीछे गिर गई। अंशुल दौड़ कर आया। धीरे अभी तुम्हारी ताकत वापस नहीं आई। अनुजा ने उसे देखते हुए कहा, “अगर तुम कल रात नहीं रुकते तो शायद मैं सुबह नहीं देख पाती।” अंशुल की आंखें भीग गई। तुम ऐसी बातें मत करो। अब मैं हूं ना सब ठीक होगा। और उसी पल दरवाजे पर किसी ने जोर से दस्तक दी। अंशुल चौंका। अनुजा भी घबरा गई। बाहर से एक कठोर आवाज आई। अनुजा किराया देना है या
नहीं? आज आखिरी दिन है। नहीं दिया तो कमरा खाली करवाना पड़ेगा। अनुजा का चेहरा सफेद पड़ गया। उसके हाथ कांपने लगे। उसने डरते हुए कहा, अंशुल मैं क्या करूं? मेरे पास तो अंशुल ने उसके हाथ पर हाथ रखा। तुम सिर्फ सांस लेने की चिंता करो। बाकी मैं देख लूंगा। वो दरवाजे की ओर बढ़ा और संभलकर उसे खोला। दरवाजे के बाहर मकान मालिक खड़ा था। चेहरे पर गुस्सा, हाथ में नोटबुक। लेकिन उसने जैसे ही अंशुल को देखा, उसकी भौहें सिकुड़ गई। तुम यहां और यह यहां एक लड़का रात भर रुका। यह ठीक नहीं है। अंशुल ने उसकी बात काट दी। उनकी तबीयत रात में बहुत खराब थी। डॉक्टर को
बुलाना पड़ा और रही बात किराए की। मैं दे दूंगा। मकान मालिक आवाक रह गया। तुम तुम क्या हो इनके? पति अंशुल एक सेकंड के लिए रुक गया। फिर उसने बहुत धीमी लेकिन दृढ़ आवाज में कहा। जो भी नाम दे लो पर आज से इन्हें अकेले नहीं रहने दूंगा। मकान मालिक चुप हो गया और धीमे कदमों से चला गया। अंशुल अनुजा के पास आया और धीरे से बोला क्यों देख रही हो ऐसे? अनुजा की आवाज कांप रही थी। तुम अभी भी मेरे लिए ऐसे खड़े हो। जैसे कुछ बदला ही नहीं। अंशुल उसके पास बैठ गया। बहुत कुछ बदला है अनुजा। हालात टूटे रास्ते अलग हुए। पर एक बात नहीं बदली। तुम गिरो और मैं उठाने ना आऊं। यह
हो ही नहीं सकता। उसकी पलकों से आंसू फिसल पड़े। मैंने सोचा था अब मेरे लिए कोई नहीं बचेगा। और तुम अंशुल ने धीरे से उसके आंसू पोछे। तुम्हारे पास मैं हूं। चाहे नाम जो भी हो पूर्व पति, दोस्त या सिर्फ इंसान। लेकिन मैं हूं और तब तक रहूंगा जब तक तुम खुद चलने लायक नहीं हो जाती। दिन बीतने लगे। अंशुल हर सुबह दवाई लाता, खाना बनाता, कमरे की सफाई करता और रात में उसके पास बैठकर उसकी सांसे सुनता। जैसे डर हो कहीं वह फिर टूट ना जाए। अनुजा उसे देखती रहती और सोचती। किसी इंसान का दिल इतनी चुपचाप कैसे बदल जाता है? एक शाम धीमी धूप
कमरे में फैल रही थी। अनुजा ने पूछा तुम रोज अपना काम छोड़कर मेरे पास रहते हो। ईएमआई नौकरी अंशुल मुस्कुराया कल इंटरव्यू है। शायद किस्मत इस बार थोड़ा ठीक हो। और सच में किस्मत ने साथ दिया। तीन दिन बाद ईमेल आया। उसे नौकरी मिल गई थी। अनुजा की आंखें चमक उठी। अंशुल यह तो बहुत बड़ी बात है। वो हंस पड़ा। बड़ी बात यह है कि अब मैं तुम्हारी दवाई और किराए की चिंता कर सकता हूं। अनुजा धीरे से बोली, तुम क्यों करते हो मेरे लिए इतना? हम तो अब अंशुल ने बात काट दी। रिश्ता टूट जाए तो क्या हुआ? इंसानियत नहीं टूटती। दिल में जो अपनापन
होता है, वह तलाक के कागजों से मिटता नहीं। कुछ और दिन बाद डॉक्टर ने कहा कि वह अब बेहतर है। घर लौटते वक्त सड़क पर हल्की धूप टूट कर गिर रही थी। हवा में मिट्टी की खुशबू थी। चलते-चलते अनुजा रुक गई। उसने धीमी आवाज में पूछा अंशुल क्या हम कभी फिर से वो कुछ पल चुप रहा। फिर बोला चलो पहले खुद को सवारते हैं। बाकी बात समय को करने देते हैं। लेकिन इतना वादा है। अब तुम्हें गिरने नहीं दूंगा। अनुजा हल्का सा मुस्कुरा दी। और इस बार मैं तुम्हें दूर नहीं जाने दूंगी। दोनों एक ही दिशा में चल पड़े। ना पतिप की तरह ना अजनबी की तरह बल्कि दो ऐसे लोग जिन्हें किस्मत ने अलग
किया था और इंसानियत फिर से जोड़ रही थी। दोस्तों कभी-कभी सबसे टूटे हुए रिश्ते भी एक छोटे से अच्छेपन से फिर से सांस लेने लगते हैं। बस किसी एक को इंसानियत नहीं छोड़नी होती। लेकिन अगर आपकी जिंदगी में कोई ऐसा इंसान अकेले संघर्ष कर रहा हो। क्या आप उसके लिए हाथ बढ़ाएंगे और आपके साथ ऐसा होता तो आप क्या करते और अंशुल का फैसला सही था या गलत कमेंट करके जरूर बताएं और अगर कहानी ने दिल छुआ हो तो लाइक जरूर करें। ऐसी ही सच्ची भावुक कहानियां रोज सुनने के लिए चैनल स्टोरी बाय एसके को सब्सक्राइब करें। मिलते हैं अगली कहानी में। जय हिंद जय भारत।
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