शहर के पुराने इलाके की एक संकरी गली में, एक पुरानी कोठी का दरवाज़ा सिसकियों से भरी आहट से खुला। अंदर अँधेरा था, बस एक टिमटिमाती बल्ब की रोशनी में एक बिस्तर पर सत्तर साल की श्रीमती वर्मा कराह रही थीं। उनकी सांसें सीटी की तरह बज रही थीं। उनका एकमात्र बेटा, राहुल, फोन पर बेताबी से बोल रहा था, “हाँ डॉक्टर साहब, कृपया आ जाइए… माँ की हालत बहुत खराब है… हम प्राइवेट अस्पताल का खर्च नहीं उठा सकते…”

डॉ. अरुण मल्होत्रा शहर के नामी कार्डियोलॉजिस्ट थे। उस शाम वह एक मरीज की रिपोर्ट देख रहे थे जब राहुल का कॉल आया। क्लिनिक का समय खत्म हो चुका था। नर्स ने कहा था, “सर, वह बहुत गरीब लग रहे हैं, शायद फीस न दे पाएं।” डॉ. अरुण ने सिर्फ अपना बैग उठाया और कहा, “एम्बुलेंस को तैयार करो। मैं खुद जा रहा हूँ।”

गाड़ी से उतरकर वह उस गली में दाखिल हुए। गंदे पानी और सड़न की बू… लेकिन डॉक्टर की चाल तेज थी। कमरे में दाखिल होते ही उनकी नजर सीधे मरीज पर पड़ी। बिना एक शब्द कहे, उन्होंने बैग खोला, ऑक्सीजन मास्क लगाया, स्टेथोस्कोप से सुना। “निमोनिया है, हृदय पर दबाव पड़ रहा है। तुरंत अस्पताल ले चलना होगा,” उनकी आवाज़ सख्त थी।

“लेकिन डॉक्टर साहब…” राहुल की आँखें डर से भरी थीं, “पैसे…”

“पैसे की चिंता मत करो। पहले जान बचाओ।” डॉ. अरुण ने खुद मरीज को स्ट्रेचर पर उठाने में मदद की।

अध्याय 2: अस्पताल और अफवाह

अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में डॉ. अरुण ने खुद मरीज की देखभाल शुरू की। उन्होंने महंगी दवाएं लिखीं, वेंटिलेटर का इंतजाम किया। नर्सें और जूनियर डॉक्टर हैरान थे। ‘द रॉक’ कहलाने वाले डॉ. अरुण, जो सख्त और व्यावहारिक माने जाते थे, आज एक अजनबी गरीब बुजुर्ग के लिए इतने मसीहा बने हुए थे।

लेकिन अगले ही दिन, अस्पताल के गलियारों में एक अफवाह फैल गई। कोई कह रहा था कि डॉ. अरुण ने श्रीमती वर्मा के इलाज के नाम पर उनके बेटे से लाखों रुपए ऐंठे हैं। कोई कह रहा था कि उन्होंने अनावश्यक टेस्ट करवाए हैं। एक लोकल न्यूज़ चैनल ने सनसनीखेज हेडलाइन दी: ‘नामी डॉक्टर का शोषण! बीमार बुजुर्ग से ठगी!’

राहुल, जो माँ के बेहोश होने से परेशान था, इस अफवाह से बौखला गया। उसने कैमरे के सामने आकर कहा, “मैंने डॉक्टर साहब को एक पैसा नहीं दिया! वे मेरे मसीहा हैं!” लेकिन उसकी आवाज दबा दी गई। ‘पीड़ित परिवार दबाव में’ – एक और हेडलाइन छप गई।

डॉ. अरुण पर अस्पताल प्रबंधन ने दबाव डाला। “यह छवि के लिए ठीक नहीं, डॉक्टर। उस मरीज को सरकारी अस्पताल रेफर कर दें।”

डॉ. अरुण ने सिर्फ इतना कहा, “मेरा मरीज मेरी जिम्मेदारी है। मैं उसे छोड़ूंगा नहीं।”

अध्याय 3: अतीत का साया

इस बीच, श्रीमती वर्मा होश में आईं। एक दिन जब डॉ. अरुण उनकी जांच कर रहे थे, उनकी नजर डॉक्टर की गर्दन पर लटके एक छोटे से ताबीज पर पड़ी। वह जमकर देखने लगीं। उनकी आँखों में एक अजीब चमक आई।

अगले दिन, जब डॉ. अरुण अकेले थे, श्रीमती वर्मा ने कमजोर आवाज में पूछा, “बेटा… तुम्हारा जन्म… क्या तुम जुलाई में पैदा हुए थे? तुम्हारी माँ… क्या उसका नाम… सुशीला था?”

डॉ. अरुण स्तब्ध रह गए। यह राज उन्होंने किसी को नहीं बताया था। उनकी माँ का नाम सुशीला ही था और वह जुलाई में पैदा हुए थे। उनके पिता ने बचपन में ही उन्हें और उनकी माँ को छोड़ दिया था। माँ ने कड़ी मेहनत से उन्हें पाला और डॉक्टर बनाया, लेकिन गरीबी में उनकी मृत्यु हो गई थी। यह ताबीज उनकी माँ ने ही उन्हें दिया था।

“आप कैसे जानती हैं?” डॉ. अरुण की आवाज काँप रही थी।

श्रीमती वर्मा की आँखों से आँसू बहने लगे। “सुशीला… मेरी सबसे अच्छी सहेली थी। हम एक साथ कॉलेज जाते थे। जब उसके पति ने उसे छोड़ा, तो मैंने ही उसे उस दिन आधी रात को हॉस्पिटल पहुँचाया था, जब तुम पैदा हुए थे। यह ताबीज… मैंने ही तुम्हारी माँ को तुम्हारे जन्म पर दिया था।”

डॉ. अरुण का सारा संसार थम सा गया। वह बुजुर्ग औरत, जिसे वह एक सामान्य मरीज समझ रहे थे, उनकी माँ की मित्र थी। वह शायद उस रात उनकी जान बचाने वाली एम्बुलेंस ड्राइवर थी। अब उनकी बारी थी।

अध्याय 4: इंसानियत रो पड़ी

अगले दिन, वह न्यूज़ चैनल वाला रिपोर्टर फिर आया, इस बार और आक्रामक। डॉ. अरुण ने उसे रोकते हुए कहा, “आप सब सच जानना चाहते हैं? तो आ जाइए।”

कैमरा और माइक लेकर वह सब श्रीमती वर्मा के कमरे में पहुँचे। रिपोर्टर ने सवाल दागा, “डॉक्टर साहब, क्या आप इस मरीज से फीस ले रहे हैं?”

तभी, बिस्तर पर पड़ी श्रीमती वर्मा ने आवाज लगाई। उन्होंने अपनी कमजोर बाँहें उठाईं और डॉ. अरुण का हाथ पकड़ लिया। उनकी आँखों से आँसू की धारा बह निकली। “यह… यह मेरा बेटा है,” उन्होंने कांपती आवाज में कहा, “यह वही बच्चा है जिसे मैंने अपने हाथों पर जन्म लेते देखा था। जिसकी माँ ने मरते दम तक इसकी परवरिश की। और आज… यह मेरी जान बचा रहा है। तुम लोग इसे बदनाम कर रहे हो? तुम्हारी इंसानियत कहाँ है?”

उन्होंने डॉ. अरुण का वह ताबीज दिखाया। अपनी और सुशीला की पुरानी तस्वीर निकाली, जो उन्होंने हमेशा अपने बटुए में रखी थी।

कमरा सन्नाटे में डूब गया। रिपोर्टर का माइक हाथ से छूटने लगा। कैमरामैन की आँखें नम हो गईं। राहुल, जो अब तक सब कुछ समझ चुका था, डॉ. अरुण के पैर छूने लगा। “माफ करना, डॉक्टर साहब… हमने नहीं जाना…”

डॉ. अरुण ने उसे उठाया। उनकी आँखें भी भीगी हुई थीं। “कोई बात नहीं, बेटा। अब हम सब एक परिवार हैं।”

अध्याय 5: फिर जो हुआ…

वह वीडियो वायरल हो गया। ‘इंसानियत रो पड़ी’ वाला वह दृश्य पूरे देश ने देखा। अफवाहें रुँध गईं। सोशल मीडिया पर #SaluteDoctorArun ट्रेंड करने लगा।

फिर जो हुआ, वह और भी सुंदर था।

डॉ. अरुण ने श्रीमती वर्मा को अपने घर में रखा। राहुल को अस्पताल में ही एक अच्छी नौकरी मिल गई। लेकिन सबसे बड़ा बदलाव तब आया जब डॉ. अरुण ने अपनी सारी जमापूंजी लगाकर ‘सुशीला ट्रस्ट’ की स्थापना की – एक मोबाइल क्लिनिक जो हर weekend शहर के झुग्गी-झोपड़ियों में जाकर मुफ्त इलाज करता।

श्रीमती वर्मा अब पूरी तरह ठीक हो चुकी हैं। वह उस ट्रस्ट की संरक्षक हैं। डॉ. अरुण का वह ‘रॉक’ वाला छवि बदल गया है। लोग अब उन्हें ‘मसीहा डॉक्टर’ कहते हैं।

एक शाम, डॉ. अरुण श्रीमती वर्मा के सामने चाय पी रहे थे। उन्होंने पूछा, “मौसी, उस रात आपने मुझे पहचाना नहीं? जब मैं पहली बार आपके घर आया था?”

श्रीमती वर्मा ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, बुजुर्ग आँखें धुंधली होती हैं, लेकिन दिल नहीं। जब तुमने मेरा हाथ पकड़ा, तो वही गर्मजोशी महसूस हुई, जो तुम्हारी माँ के हाथों में होती थी। मैंने सोचा, भगवान ने मेरी सहेली को मेरे पास वापस भेज दिया है… उसके सबसे कीमती तोहफे के रूप में।”

और डॉ. अरुण समझ गए कि जिंदगी का सबसे बड़ा इलाज दवाइयों में नहीं, बल्कि उस ‘इंसानियत’ में छिपा है, जो कभी-कभी रो भी पड़ती है… ताकि नए सिरे से प्यार की नई कहानी लिखी जा सके।