बाहर जयपुर की हल्की बारिश खिड़की के शीशों पर लगातार गिर रही थी जब आख़िरकार शादी की दावत ख़त्म हुई।
आख़िरी मेहमान हँसते हुए विदा हुए, और राजावत हवेली फिर से सन्नाटे में डूब गई।
हवा में अब भी फूलों, इत्र और जली हुई मोमबत्तियों की मिली-जुली महक तैर रही थी।
मैं — आर्या — थककर चूर थी।
सफ़ेद लहंगा उतारकर, मेकअप धोकर, सोचा अब शायद कुछ पल चैन से बैठ लूँगी।
लेकिन जैसे ही बिस्तर के किनारे बैठी, दरवाज़े पर तीन हल्की दस्तकें हुईं —
टक, टक, टक…
मैंने सोचा आरव (मेरा पति) होगा, जो शायद पानी लेने नीचे गया हो।
पर दरवाज़ा खोला तो मेरी आवाज़ गले में अटक गई।
वो थी मीनाक्षी — आरव की बड़ी बहन।
तीस साल की, अब तक कुंवारी, चेहरे पर वही अजीब-सी मासूम लेकिन बेचैन मुस्कान जो किसी को समझ नहीं आती थी।
उसने गहरे मरून रंग का स्ट्रैप वाला नाइटी पहना हुआ था, और बाँहों में एक पुराना तकिया दबाया हुआ था।
“क्या मैं आज रात तुम्हारे साथ सो सकती हूँ?” — वो मुस्कुराई।
“बचपन से मैं और आरव कभी अलग नहीं सोए। अब जब वो शादी कर गया है… तो बहुत खाली-खाली लग रहा है।”
मैं सन्न रह गई।
कुछ बोल ही नहीं पाई।
पीछे से आते हुए आरव ने बात को हँसी में उड़ाने की कोशिश की:
“दीदी मज़ाक कर रही हैं, ना?”
लेकिन मीनाक्षी ने उसे ऐसी शांति से देखा कि कमरे की हवा भारी लगने लगी।
फिर मेरी ओर देखकर बोली:
“मज़ाक नहीं कर रही। बस बीच में सोऊँगी। इससे सब कुछ ‘साफ़-सुथरा’ रहेगा… और मुझे अपने भाई की कमी भी कम लगेगी।”
कमरे में ऐसा सन्नाटा छा गया जैसे किसी ने साँस रोक ली हो।
मैं राजावत परिवार के घर में सिर्फ़ एक दिन से थी — और शादी की पहली रात को ननद से बहस करना अनहोनी लगता।
तभी बाहर से सासू माँ, शोभा देवी की आवाज़ आई:
“सोने दो उसे, बेटी। कोई बात नहीं, आज की रात ही तो है।”
और फिर वही हुआ।
आरव दीवार की ओर लेट गया, मीनाक्षी बीच में, और मैं दूसरी तरफ़, छत को घूरती हुई।
घड़ी ने एक बजने का इशारा किया।
मैंने आँखें बंद कीं, लेकिन कमरे की हवा जैसे थम-सी गई थी — भारी, घुटी हुई।
हर बार जब मीनाक्षी ज़रा-सी हिलती, तो उसकी चादर मेरे हाथ से छू जाती और मेरी रूह काँप उठती।
डर था या झिझक — समझ नहीं पा रही थी।
सोचा, नींद आ जाए तो शायद ये सब किसी बेवकूफ़ी भरे किस्से में बदल जाए।
लेकिन करीब दो बजे — कुछ सुनाई दिया।
पहले बहुत हल्का फुसफुसाना… इतना धीमा कि लगा सपना देख रही हूँ।
फिर टूटी-फूटी साँसें — बिलकुल मेरी पीठ के पीछे से।
दिल की धड़कन इतनी तेज़ हो गई कि खुद की साँस सुनाई देने लगी।
वो आरव नहीं था — वो गहरी नींद में था।
आवाज़ मीनाक्षी की थी।
मैं जड़ बनकर लेटी रही।
फुसफुसाहटें और पास आईं — जैसे कोई किसी के कान में बेचैनी से बोल रहा हो।
एक अजीब-सी नम, काँपती हुई आवाज़।
मैंने खुद को समझाया — सपना होगा।
लेकिन तभी…
एक ठंडी, काँपती हुई हथेली मेरी पीठ से टकराई।
मेरी साँस रुक गई।
मैंने डर से गला निगलते हुए धीरे-धीरे पलटकर देखा।
धुंधले उजाले में, मीनाक्षी की आँखें खुली थीं — चमकती हुईं, जैसे किसी जानवर की अंधेरे में।
उसके होंठ हिल रहे थे, कुछ बुदबुदाते हुए, जो मैं समझ नहीं सकी।
उसका शरीर आरव के ऊपर झुका हुआ था — बहुत ज़्यादा पास।
फुसफुसाहट अब सिसकियों में बदल चुकी थी।
फिर उसने सिर उठाया — और हमारी नज़रें मिलीं।
उन आँखों में जो देखा… उससे वक्त थम गया।
खालीपन, दुख, और कुछ ऐसा — जो इंसानी नहीं था।
मेरे होंठ खुले, पर आवाज़ नहीं निकली।
केवल घड़ी की टिक-टिक सुनाई दी — दो बजकर पंद्रह मिनट।
और तभी, मैंने सुना —
एक वाक्य, इतना धीमा कि जैसे साँस के साथ निकला हो:
“मैंने कहा था ना… मैं उसे किसी के साथ बाँटूंगी नहीं।”
खिड़की से हवा का झोंका आया, मोमबत्ती झिलमिलाई, और सन्नाटा छा गया।
बीस साल बीत गए उस रात को।
कभी-कभी सोचती हूँ, शायद सब सपना था।
लेकिन जब आँखें बंद करती हूँ… अब भी वो आवाज़ सुनाई देती है।
“मैंने कहा था ना… मैं उसे किसी के साथ बाँटूंगी नहीं।”
अगली सुबह, सूरज की रोशनी खिड़की से भीतर आई — गर्म, मगर बेरहम।
फूलों की मुरझाई खुशबू अब भी कमरे में थी।
और बिस्तर पर — आरव नहीं हिला।
मैंने उसे पुकारा, झकझोरा, चिल्लाई — पर कोई जवाब नहीं।
उसके होंठ ठंडे थे।
उसका सीना स्थिर।
और मीनाक्षी — बगल में — आँखें खुली, छत को देखती हुई, जैसे कोई अनसुना गीत सुन रही हो।
शोभा देवी ने जैसे ही कमरे में कदम रखा, उनकी चीख़ ने पूरी हवेली जमा दी।
पड़ोसियों ने कहा — “दिल का दौरा पड़ा।”
पुलिस ने उसी दिन मामला बंद कर दिया।
किसी ने मीनाक्षी से कुछ नहीं पूछा।
किसी ने उसके गले के पास उस लाल दाग़ की बात नहीं की।
कुछ हफ़्तों बाद, वो ग़ायब हो गई।
किसी ने कहा वो हरिद्वार चली गई, कोई बोला मंदिर के बाहर काले घूंघट में भीख माँगती देखी गई।
शोभा देवी ने कभी उसका नाम नहीं लिया।
उन्होंने कमरे को शुद्ध कराया, चादरें जला दीं, और हवेली के ताले बदल दिए।
मैंने जयपुर छोड़ दिया — और कसम खाई कि कभी लौटूँगी नहीं।
पर वक़्त… और अपराधबोध… रास्ता ढूंढ ही लेते हैं।
…
बीस साल बाद, कल रात मैं लौटी।
हवेली वैसी की वैसी थी — मिट्टी की दीवारें, लेस के परदे, और हॉल में वही पुराना राजावत साहब का चित्र, जिनकी आँखें हर ओर पीछा करती लगती थीं।
मैं उसी कमरे में पहुँची।
हवा में सीलन थी, पर कुछ और भी… जो नाम नहीं दे सकी।
मैं बिस्तर पर बैठी — ठीक उसी जगह — जहाँ उस रात लेटी थी।
लकड़ी चरमराई, और मुझे एक हल्की साँस की आवाज़ सुनाई दी।
फिर मैंने देखा —
वो पुराना तकिया — फूलों के मुरझाए डिज़ाइन वाला — सलीके से मेज़ पर रखा था।
और उसके किनारे पर… एक लंबा, काला बाल लिपटा हुआ था।
मेरी त्वचा सिहर उठी।
घर खाली था।
फिर भी हवा ठंडी होने लगी, घड़ी ने दो बजाए, और खिड़की से हवा का झोंका आया — जैसे कोई अंदर आया हो।
“आरव…” — मैंने फुसफुसाया।
सन्नाटा।
पर बिस्तर के उस हिस्से से — जहाँ मीनाक्षी सोया करती थी — चादर की सरसराहट हुई।
एक साँस।
फिर… एक आवाज़।
“तुम्हें लौटना नहीं चाहिए था, आर्या।”
मैं जड़ हो गई।
धीरे-धीरे पलटी।
और वो थी —
वही मरून रंग की नाइटी, वही पीला पड़ा चेहरा, धँसी आँखें — और वही मुस्कान।
“अब तो ठीक है,” — उसने कहा — “आख़िर हम तीनों फिर साथ हैं।”
मोमबत्ती बुझ गई।
घड़ी रुक गई।
और आख़िरी चीज़ जो मुझे याद है — वो थी उसकी ठंडी हथेली मेरी हथेली पर…
और तीन साँसें — एक ही ताल में चलती हुईं।
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