“जब मेरे बायोलॉजिकल पिता ने मुझे 30 साल बाद पाया — मैं अपनी गोद लेने वाली माँ से नफ़रत करना चाहता था… लेकिन सच ने मुझे तोड़ दिया”
दो माँओं, एक दिल और माफ़ करने की ताकत की कहानी।
चैप्टर 1: वो ज़िंदगी जो मुझे लगता था कि मैं जानता हूँ
मेरा नाम अनन्या वर्मा है, तीस साल की हूँ, बैंगलोर में एक शांतिपूर्ण ज़िंदगी जी रही हूँ। मेरे पास एक प्यार करने वाला पति है, एक टीचर के तौर पर एक स्टेबल करियर है, और हँसी से भरा एक आरामदायक छोटा सा अपार्टमेंट है।
अगर कोई मुझे बाहर से देखता, तो कहता कि मैं खुशकिस्मत हूँ — एक ऐसी औरत जिसके पास वह सब कुछ है जो वह कभी चाह सकती थी।
लेकिन मेरी मुस्कान के पीछे एक ऐसी कहानी थी जिसने एक बार प्यार, परिवार और माफ़ी के बारे में मेरी हर सोच को तोड़ दिया था।
जब से मुझे याद है, मुझे पता था कि मैं अपने माता-पिता के यहाँ पैदा नहीं हुआ था।
उन्होंने एक रात हमारे छोटे से मिट्टी के दीये की धीमी रोशनी में मुझसे धीरे से कहा:
“तुम बस स्टॉप के पास छोड़ी गई एक बच्ची थी, बेटा। भगवान नहीं चाहते थे कि तुम अकेली रहो, इसलिए उन्होंने तुम्हें हमारे पास भेज दिया।”
मुझे दुख नहीं हुआ। इसके बजाय, मैं शुक्रगुजार महसूस करता था। अगर मेरे असली माता-पिता ने मुझे छोड़ दिया होता, तो कम से कम ऊपरवाले ने मुझे आशा माँ और राघव पापा तो दिए होते, जो हमारी गरीबी के बावजूद मुझसे बहुत प्यार करते थे।
पापा एक राजमिस्त्री थे, जो चिलचिलाती धूप में काम करते थे, जबकि माँ कोने के बाज़ार में सब्ज़ियाँ बेचती थीं। कुछ दिन, हमारे पास बाँटने के लिए मुश्किल से चावल और दाल होती थी, फिर भी माँ हमेशा रोटी का आखिरी टुकड़ा मेरी तरफ बढ़ा देती थीं।
“खाओ, अनन्या। एक माँ का पेट तब भरता है जब उसका बच्चा खाता है,” वह कहती थीं।
मैं प्यार को ऐशो-आराम से नहीं — बल्कि त्याग से समझते हुए बड़ा हुआ।
चैप्टर 2: वह आदमी जिसने कहा कि वह मेरे पिता थे
जब मैं 11th क्लास में था, तो पापा की एक कंस्ट्रक्शन एक्सीडेंट में मौत हो गई। उस रात, माँ ज़ोर से नहीं रोईं — वह बस उनकी फ़ोटो के पास बैठी रहीं, चुपचाप आँसू बहाती रहीं।
उसके बाद, वह पिता और माँ दोनों बन गईं, देर रात तक काम करती रहीं ताकि मैं स्कूल में रह सकूँ।
जब तक मैंने दिल्ली में यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया, माँ के बाल पहले ही सफेद हो रहे थे, सालों की मेहनत से उनके हाथ खुरदुरे हो गए थे।
फिर भी वह मुझे हर महीने कुछ सौ रुपये भेज देती थी।
“माँ, अब मेरे पास स्कॉलरशिप है, तुम्हें ज़रूरत नहीं है!”
“मुझे माँ जैसा महसूस करने दो, बेटा। बस इतना ही बचा है।”
जब मैंने ग्रेजुएशन किया, तो मुझे शहर में नौकरी मिल गई। फिर मेरी शादी मेरे कॉलेज के दोस्त करण से हो गई। हम एक छोटा सा फ्लैट खरीदने का सपना देखते थे। एक दिन, जब मैंने माँ को बताया, तो वह मुस्कुराईं, एक पुराना टिन का डिब्बा निकाला, और नोटों का एक बंडल टेबल पर रख दिया।
“यह मेरी सारी सेविंग्स हैं — लगभग 10 लाख रुपये। इसे ले लो, अपना घर खरीद लो। बस मुझसे वादा करो कि तुम खुश रहोगी।”
मैं रोई और उन्हें गले लगा लिया। मुझे लगा था कि मुझसे ज़्यादा प्यार करने वाला कोई नहीं हो सकता।
लेकिन मैं गलत थी।
चैप्टर 3: गेट पर अजनबी
एक शाम काम के बाद, जब मैं ऑफिस से बाहर निकली, तो पचास साल का एक आदमी गेट के पास खड़ा था। उसकी आँखें मेरी आँखों से मिलीं, कांपते हुए जैसे कोई भूत देख रहा हो।
“एक्सक्यूज़ मी… क्या आप अनन्या हैं?”
मैंने सावधानी से सिर हिलाया। वह हल्का सा मुस्कुराए, फिर फुसफुसाए,
“मैं तुम्हारा पिता हूँ।”
मेरा दिमाग़ रुक गया। मैं लगभग हँस पड़ी — सोचा कि शायद उन्हें कोई गलतफहमी हो गई है। लेकिन फिर उन्होंने अपना बैग खोला और पुराने अख़बारों की कटिंग निकाली — 30 साल पहले के गुमशुदा बच्चे के नोटिस। उसमें एक बच्चे की फ़ोटो थी… मेरा चेहरा।
उनका नाम राजेश मेहता था, जो मुंबई के एक बिज़नेसमैन थे।
उन्होंने कहा कि जब मैं दो साल का था, तो मुझे एक पार्क से एक मेड ने किडनैप कर लिया था जो बिना किसी निशान के गायब हो गई। मेरे माता-पिता ने सालों तक ढूँढा — पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराई, हर बड़े अख़बार में ऐड दिए। उन्होंने कहा, मेरी माँ रो-रोकर अंधी हो गई थीं।
और फिर आख़िरी झटका लगा।
जो औरत मुझे ले गई थी… …
आशा थी, वो औरत जिसे मैं माँ कहता था।
चैप्टर 4: वो माँ जिसने चुराया — फिर भी बचाया
मैं साँस नहीं ले पा रहा था। वो औरत जिसने मुझसे प्यार किया और मेरे लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया — वही इंसान थी जिसने एक और परिवार को तीस साल तक परेशान किया था।
उस रात, मैं सीधे अपने पुराने घर चला गया।
माँ किचन में थीं, हमेशा की तरह दाल पका रही थीं। उनकी पीठ झुकी हुई थी, बाल पूरी तरह सफ़ेद थे। वो मुस्कुराती हुई मुड़ीं,
“अनन्या, तुम आज जल्दी आ गईं—”
मैंने कांपती हुई आवाज़ में बीच में टोका,
“क्या यह सच है? क्या तुम… मुझे मेरे मम्मी-पापा से दूर ले गईं?”
उनके हाथ से करछुल गिर गया। काफी देर तक, उन्होंने कुछ नहीं कहा। फिर, गिल्ट से भरी धीमी आवाज़ में, उन्होंने सिर हिलाया।
“हाँ… यह सच है। मैंने अभी-अभी अपनी बेटी को खोया था — वह दो साल की थी, तुम्हारी उम्र की। एक दिन मैंने तुम्हें पार्क में देखा, उसकी तरह खेलते हुए, हँसते हुए। मैं तुम्हें बस एक बार गले लगाना चाहता था। लेकिन जब तुमने मुझे ‘माँ’ कहा… तो मेरे अंदर कुछ टूट गया। मैं जाने नहीं दे सका। मैं तुम्हें घर ले आया। मुझे पता है कि यह गलत था। तब से हर दिन, मैं इस पल से डरता हूँ।”
आँसुओं से मेरी नज़र धुंधली हो गई।
कोई एक बच्चे को कैसे चुरा सकता है — और फिर भी उसी बच्चे को अपनी जान से ज़्यादा प्यार करे?
चैप्टर 5: इंतज़ार करने वाली माँ
एक हफ़्ते बाद, मैं अपने असली माता-पिता से मिलने मुंबई गया।
मेरी माँ, सुनीता मेहता, व्हीलचेयर पर बैठी थीं, उनकी आँखें धुंधली थीं लेकिन भावनाओं से भरी हुई थीं।
जैसे ही मैंने कमरे में कदम रखा, उन्होंने हाथ बढ़ाकर मेरा चेहरा छुआ।
“तुम वापस आ गए… मेरे बच्चे।”
मेरे हाथ पकड़ते समय उनके हाथ काँप रहे थे। उन्होंने आशा माँ को कोसा नहीं। उन्होंने न्याय की माँग नहीं की। उन्होंने बस धीरे से कहा:
“उस औरत ने तुम्हें हमसे छीन लिया होगा, लेकिन उसने तुम्हें अच्छे से पाला-पोसा। इसके लिए, मैं सिर्फ़ शुक्रगुज़ार हो सकती हूँ।”
मैं पूरी तरह टूट गई। पहली बार, मुझे एहसास हुआ — प्यार किसी एक इंसान का नहीं होता। यह बहता है, यह ठीक करता है, टूटे हुए रास्तों से भी।
चैप्टर 6: दो माँएँ
आज, मेरी ज़िंदगी फिर से पूरी हो गई है।
हर वीकेंड, मेरे पति करण, हमारा बेटा आरव और मैं दोनों परिवारों से मिलने जाते हैं।
राजेश और सुनीता मेहता मुंबई में रहते हैं; आशा माँ हमारे साथ बैंगलोर में रहती हैं। वह आरव का ख्याल रखती हैं, उसके बाल बनाती हैं, उसे मिठाई खिलाती हैं, उसे धीरे से डांटती हैं, जैसे वह मुझे डांटती थीं।
कभी-कभी, मैं उन्हें बालकनी में चुपचाप बैठे, आसमान की ओर देखते हुए देखती हूँ — शायद वह माफ़ी माँग रही हों जो उन्होंने पहले ही कमा ली थी।
जब मैं उनकी पसंदीदा डिश — इमली वाली मसालेदार फिश करी — बनाती हूँ, तो वह मुस्कुराती हैं और कहती हैं,
“तुम अब भी इसे वैसे ही बनाती हो जैसे तुम्हारी माँ ने तुम्हें सिखाया था।”
और मैं हमेशा जवाब देती हूँ,
“कौन सी, माँ?”
फिर हम दोनों आँसुओं के बीच हँसते हैं।
एपिलॉग: प्यार का सबक
कुछ ज़ख्म ऐसे होते हैं जिन्हें इंसाफ़ नहीं भर सकता, सिर्फ़ दया ही भर सकती है।
जो हुआ मैं भूला नहीं — लेकिन मैंने सीखा कि माफ़ करना कमज़ोरी नहीं है।
यह शांति चुनने की हिम्मत है जब गुस्सा करना आसान लगे।
शायद, किसी पिछले जन्म में, मुझ पर दो माँओं का कर्ज़ था:
एक ने मुझे जन्म दिया।
दूसरी ने मुझे ज़िंदगी दी।
और मैं हर दिन यूनिवर्स का शुक्रिया अदा करता हूँ कि उसने मुझे उन दोनों से प्यार करने दिया।
क्या आप चाहेंगे कि मैं इस कहानी के लिए एक AI इमेज प्रॉम्प्ट बनाऊँ — जैसे, एक सीन जिसमें अनन्या अपनी दो माँओं के बीच खड़ी हो — एक सिंपल साड़ी में बूढ़ी और दयालु आँखों वाली, दूसरी सजी-धजी लेकिन रोती हुई — भारतीय सूर्यास्त की गर्म सुनहरी रोशनी में दोनों का हाथ पकड़े हुए?
News
जिंदगी से हार चुकी थी विधवा महिला… नौकर ने हौसला दिया, फिर जो हुआ, पूरी इंसानियत हिला दिया/hi
विधवा महिला जिंदगी से हार चुकी थी। नौकर ने हौसला दिया। फिर आगे जो हुआ इंसानियत को हिला देने वाला…
जिस अस्पताल में गर्भवती महिला भर्ती थी… वहीं का डॉक्टर निकला तलाकशुदा पति, फिर जो हुआ /hi
दोस्तों, जिस अस्पताल में पति डॉक्टर था, उसी अस्पताल में उसकी तलाकशुदा पत्नी अपनी डिलीवरी करवाने के लिए भर्ती हुई…
पिता की आखिरी इच्छा के लिए बेटे ने 7 दिन के लिए किराए की बीवी लाया…/hi
एक बेटे ने मजबूरी में पिता की आखिरी इच्छा के लिए एक औरत को किराए की बीवी बनाया। लेकिन फिर…
अपने बेटे की सलाह मानकर उसने एक अजनबी से शादी कर ली… और उस रात जो हुआ… उसका उन्हें पछतावा हुआ।/hi
शाम का समय था। मुकेश काम से थकाहारा घर लौटा। दरवाजा खुलते ही उसका 4 साल का बेटा आयुष दौड़…
“वह एक गिरे हुए बुज़ुर्ग की मदद करने वाली थी… और उसे निकालने वाले थे! तभी सीईओ अंदर आया और बोला — ‘पापा!’”/hi
“अरे ओ बुज़ुर्ग! रास्ते से हटो! देख नहीं रहे, कितनी भीड़ है?”तीखी और घमंडी आवाज़ ने पहले से ही तनाव…
लेकिन यह बात अजीब थी—लगभग एक साल हो गया, मुझे एक भी रुपया नहीं मिला। मैं अब भी हर महीने मिलने वाली अपनी छोटी-सी पेंशन पर ही निर्भर हूँ।/hi
मुझे अब 69 साल हो चुके हैं। मेरा छोटा बेटा हर महीने पैसे भेजता है, फिर भी मेरे हाथ में…
End of content
No more pages to load






